संसार में किन व कौन सी मूल सत्ताओं का अस्तित्व है?
ओ३म्
हमें जो मानव शरीर मिला है उसमें पांच ज्ञान इन्द्रियां और पांच कर्म इन्द्रियां हैं। इनके अतिरिक्त शरीर के भीतर स्थित मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार अन्तःकरण चतुष्टय कहलता है। यह सभी अपना अपना काम पूरी कुशलता से करते हैं। किसी को इनके होने व कार्य करने में कोई शंका व भ्रान्ति नहीं है। आंखों से हम संसार की सभी वस्तुओं सहित ब्रह्माण्ड में सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति आदि ग्रहों एवं अन्य सौर्य मण्डल के सूर्य आदि को भी देखते हैं। अन्य सूर्य मण्डलों के सूर्य हमें सूर्य के प्रकाश में तो दृष्टि गोचर नहीं होते परन्तु जब आकाश स्वच्छ हो और कृष्ण पक्ष की अमावस्या हो तो आकाश में जो तारे दिखाईं देते हैं, वह सभी प्रायः सूर्य, सूर्य के समान भूगोल व सौर परिवारों के मुख्य ग्रह, पिण्ड व लोक आदि हैं। इन सबको देख कर किसी भी विचारशील बुद्धिमान व्यक्ति के मन में विचार आ सकता है कि यह सब रचनायें किसके द्वारा कब बनी और इस समस्त ब्रह्माण्ड के मूल तत्व व पदार्थ अथवा सत्तायें कौन व क्या हैं?
इन प्रश्नों के उत्तर बुद्धिमान व पूर्वाग्रहों से मुक्त व्यक्ति चिन्तन-मनन कर भी जान जा सकता है और वही पूर्ण सत्य व प्रामाणिक उत्तर वेदों, दर्शन व उपनिषद आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर भी प्राप्त होता है। अन्य मत-मतान्तरों में कहानियां व किस्से हैं, जो सभी यथार्थ स्थिति से भिन्न व विपरीत हैं। अतः विज्ञान की पृष्ठ भूमि के व्यक्तियों का समाधान केवल वेद और वैदिक साहित्य से ही हो सकता है जो सभी ग्रन्थ परस्पर एक मत व तर्क, युक्ति व सृष्टिकर्म के अनुकूल हैं। इससे पूर्व कि हम शास्त्रों की मान्यताओं पर विचार करें, हम विचार कर इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का प्रयास करते हैं। संसार में हमें दो प्रकार के पदार्थ दीखते हैं, एक चेतन व दूसरे जड़। चेतन पदार्थ वह हैं जिनमें ज्ञान व कर्म करने की क्षमता होती है। हम स्वयं को ही लें, हम विचार व चिन्तन करते हैं और किसी भी विषय के पक्ष व विपक्ष में विचार कर सत्य का निर्णय करते हैं। हमारे अन्दर यह विचार, चिन्तन-मनन और सत्यासत्य का निर्णय करने की जो क्षमता व गुण है, वह हमारे चेतन होने का प्रमाण है। यदि हम यह कार्य न कर पाते तो हम स्वयं को चेतन पदार्थ नहीं कह सकते थे। हम चेतन हैं यह तो ज्ञात हो गया परन्तु क्या हमारा पूरा शरीर भी हमारी तरह उसी चेतन तत्व का एक अविभाज्य भाग है? ऐसा नहीं है। इसका कारण है जब बच्चा जन्म लेता है तो उसका शरीर कुछ ग्राम व पौंड का होता है जिसका आकार अर्थात् लम्बाई, चैड़ाई आदि भी बहुत छोटा होता है। उसके बाद वह दूध व अन्न का सेवन करने से बढ़ता है और बढ़कर 40 से 100 व अधिक भी हो जाता है। बच्चे के शरीर में यह वृद्धि अन्न, दूध, फल आदि पदार्थों के कारण होती है। इससे यह ज्ञात होता है कि हमारा शरीर अन्नमय है। हम जिन मुख्य पदार्थों को भोजन में प्रयोग करते हैं उनमें से किसी में भी चेतन तत्व अर्थात् चिन्तन व विचार करने का गुण नहीं पाया जाता। हम खाद्य पदार्थों को काटते, अग्नि पर जलाते व भूनते हैं परन्तु उनमें संवेदना, दुःख व उससे बचने का गुण व प्रयास नहीं देखा जाता जबकि हमारा हाथ अग्नि में चला जाये तो हम तड़फने लगते हैं। तड़फना व दुःख का अनुभव करना चेतन पदार्थ का गुण सिद्ध होता है जबकि अन्नादि पदार्थ जड़ सिद्ध होते हैं जिनमें सुख-दुःख की अनुभूति नहीं होती। अतः हमने जड़ पदार्थों को जानने के साथ साथ चेतन पदार्थ जिसमें हमारी जीवात्मा भी एक है, को कुछ-कुछ जान लिया है। जड़ पदार्थों की गणना करें तो इसमें सभी भौतिक पदार्थ यथा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, अग्नि, जल, वायु, आकाश आदि आ जाते हैं जबकि चेतन पदार्थों में मनुष्यों सहित सभी प्राणियों के शरीरों में विद्यमान चेतन जीवात्मायें आती हैं। हमारे शरीर की जीवात्मा की भांति ही संसार के सभी प्राणियों में भी चेतन जीवात्मायें हैं जिनमें सभी मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, थलचर, जलचर व नभचर आदि आते हैं। इन सभी प्राणियों के शरीर तो जड़ व भौतिक पदार्थों से मिलकर सृष्टि नियम के अनुसार बनते हैं परन्तु इन सबमें एक सूक्ष्म चेतन जीवात्मा होता है जो ज्ञान व कर्म की सामथ्र्य से युक्त होता है।
आत्मा के आकार प्रकार के बारे में विचार करें तो यह अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थ है, आंखों से न दीखने योग्य है, लम्बाई, चैड़ाई व गोलाई से रहित एक सूक्ष्म बिन्दुवत अणु की तरह होती है। ऐसा इसलिए कि जब मृत्यु होने पर जीवात्मा शरीर को छोड़ती है तो वह दिखाई नहीं देती। इससे अनुमान होता है कि जीवात्मायें सूक्ष्म हैं और यह इसी प्रकार के अन्य सूक्ष्म भौतिक पदार्थ यथा वायु सदृश गैसों के अणुओं की तरह, विद्यमान होने पर भी हमें आंखों से दिखाई नहीं देतीं। जड़ पदार्थों में सभी भौतिक पदार्थ सम्मिलित होते हैं। किसी भौतिक पदार्थ को लेकर उसके टुकड़े किये जायें तो वह छोटा, फिर उससे छोटा और टुकड़े होते-होते एक प्रकार की घूल व पाउडर का रूप ले लेते हैं जिनमें सूक्ष्म कण होते हैं। हम धूल का एक कण ले कर देखें तो वह आखों से कठिनता से स्पष्ट दृष्टिगोचर होगा। इसी से अनुमान लगता है कि यह जड़ पदार्थ भी आदि मूल सूक्ष्म कणों से बनते हैं। वैदिक साहित्य में इन सूक्ष्मतम कणों को सत्व, रज व तमों गुणों वाली त्रिगुणात्मक प्रकृति कहा गया है। किसी भी भौतिक पदार्थ का सबसे छोटा कण जिसे और विभाजित न किया जा सके अणु व molecule कहलाता है। वैज्ञानिकों ने अपनी बुद्धि का प्रयोग कर विज्ञान व गणितीय नियमों से इस अणु का आकर प्रकार भी ज्ञात करने के साथ भी यह भी जाना है कि अणु परमाणुओं से मिलकर बनता है और परमाणुओं में भी सत्व, रज व तम की भांति प्रोटोन, इलेक्ट्रोन व न्यूट्रोन कण होते हैं। विज्ञान के इस सिद्धान्त और वेदों व दर्शन ग्रन्थों का सिद्धान्त पूर्ण व लगभग एक समान ही है। अतः वैदिक सिद्धान्त और विज्ञान दोनों परस्पर पूरक हैं जबकि वेदेतर मत-मतान्तरों के ग्रन्थों में विद्यमान कहानी व किस्सों में सृष्टि की रचना विषयक ज्ञान-विज्ञान का कोई युक्ति संगत हल प्राप्त नहीं होता। हमने संसार के दो मूल पदार्थों प्रकृति और जीवात्मा को कुछ-कुछ जान लिया है, अब एक अन्य तीसरे पदार्थ ‘सृष्टिकर्ता’ पर विचार करते हैं।
हम सभी प्राणियों में विद्यमान असंख्य जीवात्माओं की संख्या की गणना नहीं कर सकते, अतः वह हमारे ज्ञान में संख्या की दृष्टि से अनन्त हैं। इसी प्रकार से यह समस्त जगत प्रकृति के परमाणुओं से बना है जो कि संख्या, परिमाण आदि की दृष्टि से अनन्त ही हैं। अब प्रश्न होता है कि इन परमाणुओं से इस सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व अन्य अनेकानेक पदार्थों की रचना किसने व कैसे की? इसके लिए प्रथम तो हमें यह जानना आवश्यक है कि प्रलय अवस्था, सृष्टि की रचना होने से पूर्व की अवस्था, में यह कारण प्रकृति सत्, रज व तमों के कणों वा परमाणु रूप में थी और वह परमाणु अनन्त आकाश में सर्वत्र फैले हुए थे। इनसे सृष्टि की रचना करने वाली एक चेतन, गुणवान, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, अखण्ड, सर्वत्र एकरस, अच्छेद्य, अभेद्य, सर्वातिसूक्ष्म, निराकार, सर्वान्तर्यामी, धर्मात्मा, अजन्मा, अनादि, नित्य, अनुत्पन्न सत्ता की आवश्यकता है। इस सत्ता में सदा-सदा से अनन्त ज्ञान जो इस सृष्टि व सभी प्राणि जगत को बनाने में सहायक होता है, का होना भी आवश्यक है, उसी से यह सृष्टि बनी है। यह सृष्टि रचने वाली सत्ता अल्पज्ञ व एकदेशी चेतन जीवात्मा और कारण मूल जड़ प्रकृति से सर्वथा भिन्न वा पृथक है। उसने अपने अनादि व नित्य ज्ञान सहित अपनी सर्वव्यापकता व सर्वान्तर्यामित्व गुण से, पूर्व कल्प-कल्पान्तरों के अनुसार, इस सृष्टि को उपादान कारण अनादि व नित्य ‘‘प्रकृति” के द्वारा रचा है। यदि ऐसा न होता तो यह सृष्टि कदापि उत्पन्न व सृष्ट नहीं हो सकती थी। इसी परम-सत्ता ‘‘परमात्मा” ने समस्त सृष्टि व ब्रह्माण्ड की रचना कर जीवात्माओं को उनके पूर्व कल्प वा जन्मों के कर्मों के आधार पर सुख पहुंचाने के उद्देश्य से की है और उनके सुख के लिए ही इस सृष्टि में नाना प्रकार के ऐश्वर्य और सुख-भोग की सामग्री सहित उनके नाना प्रकार के शरीरों को उत्पन्न किया है। जीवात्मा का स्वाभाविक ज्ञान अनादि व नित्य है और उसे अनेकानेक विषयों का जो ज्ञान होता है वह नैमित्तिक होता है जिसमें ईश्वर की कृपा भी सम्मिलित होती है। इस प्रकार से संसार की गुत्थी सुलझ जाती है अर्थात् इस संसार में तीन मौलिक व मूल पदार्थ ईश्वर, जीव व प्रकृति हैं। ईश्वर केवल एक सत्ता है, वह सर्वव्यापक और आनन्दस्वरुप आदि अनेक विशेषणों से सुशोभित है। जीवात्मायें एकदेशी, ससीम, अल्पज्ञ व कर्मों के बन्धन में आबद्ध हैं जिनकी संख्या इस पृथिवी व ब्रह्माण्ड में अनन्त है परन्तु ईश्वर के ज्ञान में वह सीमित व गण्य है। ईश्वर व जीवात्मा, यह दोनों सत्तायें चेतन हैं तथा तीसरी सत्ता प्रकृति जड़ सत्ता है। यह तीनों मूल सत्तायें सदा से हैं और सदा रहेंगी। इनका अभाव व अस्तित्व-नाश कभी नहीं होगा। यह सभी उत्तर तर्क, युक्ति व विवेकपूर्ण है। इनका ऐसा ही वर्णन वेद और वैदिक साहित्य में मिलता है।
इन मूल पदार्थों के शास्त्रीय ज्ञान के लिए वेद, दर्शन, उपनिषद, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से सहायता ली जा सकती है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में स्वामी दयानन्द ने इन सभी ग्रन्थों का अध्ययन कर दूध से नवनीत के समान सभी वैदिक मान्यताओं को सरल हिन्दी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश व ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है अतः केवल सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ पढ़कर भी सृष्टि रहस्य को जाना जा सकता है। सृष्टि में यही तीन मूल पदार्थ हैं। इस विशाल व अनन्त ब्रह्माण्ड का यही परम रहस्य भी है। जिस मनुष्य ने इस ज्ञान को जान व समझ लिया और अपने जीवन व व्यवहार में धारण कर लिया है, वही मनुष्य ज्ञानी, विज्ञानी व विवेकी होता है। यह भी जान लें कि संसार में जितनी भी योनियां हैं, उनमें मनुष्य योनि सर्वश्रेष्ठ है। वह इसलिए कि मनुष्य के पास मनन व चिन्तन तथा विवेक धारण करने के लिए ईश्वर ने उसके शरीर में सत्यासत्य का विवेक करने वाली बुद्धि दी है। अन्य सब इन्द्रियां तो थलचर व जलचर आदि सभी प्राणियों के पास हैं परन्तु विवेक बुद्धि ईश्वर ने केवल मनुष्यों को ही दी है। विवेक कराने वाली बुद्धि ईश्वर ने मनुष्यों को इस लिए दी है कि जिससे वह सत्य को जानकर ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना, यज्ञ, परोपकार, सेवा, ब्रह्मचर्यादि सत्य व्रतों का पालन करते हुए ईश्वर का साक्षात्कार कर, इससे जन्म-मरण के बन्धों से छूट कर, बहुत लम्बी अवधि 31 नील 10 अरब 40 खरब वर्षों तक मोक्ष में पूर्ण सुख व आनन्द का भोग कर सके। हर पिता अपने पुत्र व पुत्रियों को सुख देना चाहता है, ऐसा ही ईश्वर भी चाहता है। इसका वर्णन भी सत्यार्थप्रकाश में विस्तार से जाना जा सकता है। ईश्वर का साक्षात्कार और मोक्ष की उपलब्धि करना ही मनुष्य जीवन का प्रयोजन है। यदि मनुष्य अपनी विवेक बुद्धि व वेदों की शिक्षाओं के विपरीत आचरण करता है तो फिर वह जीवन-मृत्यु के बन्धन में फंस कर सुख व दुःखों में आबद्ध रहता है। आज अधिकांश लोग वेद विरोधी मार्ग का अवलम्बन कर दुःखों से मुक्त होने के स्थान पर आसक्ति वाले कर्मों को करके दुःखों के बन्धन में फंस रहे हैं। इनसे मुक्ति का मार्ग केवल वेदमार्ग ही है। अन्य कोई पथ व मार्ग नहीं है। यह धु्रव सत्य है। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य
अच्छा लेख !
नमस्ते एवम हार्दिक धन्यवाद् आरण्य श्री विजय जी ।