ग़ज़ल : बेटी के अधिकार में
आज कलम चलने लगी है बेटी के अधिकार में,
क्योंकि हार ज़माने की है हर बेटी की हार में,
मैं बताना चाह रहा अपने सामाजिक दर्पण को,
घुट घुट कर जो जी रही बेटी के उस समर्पण को,
सात फेरों का बंधन है जो वचनों के संग बनता है,
और आत्मा के मिलन से जीवन में रंग भरता है,
दोनों में झगड़ा तो प्रेम का प्रतीक माना जाता है,
और प्रेम का होना उनके नज़दीक माना जाता है,
लेकिन इस मौके पर लड़का ताना कसे दहेज का,
टीवी कूलर मिक्षर फ्रीज अलमारी के संग सेज का,
ऐसा मौका देख छोड़ता उसको उसके हाल पर,
बेटी को जवाब न मिलता है जी इस सवाल पर,
मन भरता है पत्नी से फिर करता मांग तलाक की,
और फैसले में गड्डियाँ फेंकने लगता लाख की,
समझ खिलौना बेटी को जीवन उसका बर्बाद करे,
तो समाज में कोई बेटी न उससे विवाह करे,
उसकी करतूतों का उसको ऐसा सबक सिखाना है,
कर सके न फिर विवाह एक ऐसा कानून लाना है,
गर बेटी लाचार हुई तो कौन खामियाजा भुगतेगा,
बात पैसों की है नहीं पर कैसे जीवन सुधरेगा,
सुन ले दुनिया एक दफा मैं “यश” कलम से कहता हूँ,
हर दर्द जो लिखता हूँ उसको अपनाकर सहता हूँ,
हाथ जोड़कर है गुजारिश बेटी को इंसाफ दिलाओ,
सही लगे तो आप भी एक ऐसा कानून पास कराओ|
— योगेन्द्र जीनगर “यश”, राजसमंद