आओ ! सत्यार्थ प्रकाश की चर्चा करें
ओ३म्
सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती रचित एक आर्ष ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का पहला संस्करण सन् 1875 में प्रकाशित हुआ था। इसमें मुद्रण आदि की कुछ त्रुटियों, लेखकों व प्रेसकर्मियों द्वारा मिलाये गये अपपाठों और अन्त के दो समुल्लास न छपने के कारण महर्षि दयानन्द ने इसका संशोधित संस्करण तैयार किया जो उनकी 30 अक्तूबर, सन् 1883 को मृत्यु के पश्चात सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। इसमें 14 समुल्लास हैं जिनमें ईश्वर के स्वरूप व उसके 100 नामों की व्याख्या से लेकर विवाह, माता-पिता के कर्तव्य, बालकों की शिक्षा, गृहस्थ जीवन के कर्तव्य, वानप्रस्थ व संन्यास आश्रम का स्वरूप व उनसे जुड़े विषय, वेद सम्मत राजधर्म व शासन के संचालन विषयक जानकारी, जीवात्मा, परमात्मा का स्वरूप, वेद सम्बन्धी विषय, मुक्ति व मोक्ष का सप्रमाण वर्णन, आर्यावर्तीय मत-मतान्तरों का वर्णन व उनका खण्डन-मण्डन व अन्तिम 3 समुल्लासों में नास्तिक चारवाक, बौद्ध व जैन मत समीक्षा और उसके पश्चात ईसाई मत तथा कुरआन की समीक्षा व परीक्षा की गई है।
सत्यार्थ प्रकाश जैसा ग्रन्थ संसार में दूसरा कोई नहीं है। इसका कारण है कि जिसके पास सत्य होता है वहीं सबसे अधिक निर्भीक, साहसी तथा बलवान होता है। जब तक सत्यार्थ प्रकाश की रचना व प्रकाशन नहीं हुआ था, सभी मत अपने मत की भ्रान्त व सृष्टि-क्रम के विरूद्ध नियमों व सिद्धान्तों का जोर-शोर से प्रचार करते थे। यह इतिहास से सिद्ध तथ्य है कि भारत में सर्वत्र लोगों को प्रलोभन, भय, छद्म रूप से सेवा करके, छल, प्रंपच आदि अनेक तरीकों से भोले-भाले लोगों का धर्मान्तरण किया गया है। आज धर्म के बारे में वैदिक-धर्मी आर्य समाजियों के पास धर्म सम्बन्धी समुचित जानकारी है, अब कोई भी तथाकथित धर्म, मत, मजहब, गुरूडम वाले अपनी शेखी नहीं बघार सकते। आर्य समाज ने समय-समय पर मत-मतान्तरों के लोगों व विद्वानों से जो प्रश्न किए थे उनका उत्तर भी देने के लिए कोई आगे नहीं आता। आर्य समाज के विद्वान वेदों व वैदिक साहित्य के आधार पर जिन सच्चाईयों को सामने रख कर संसार के मतों के प्रमुख विद्वानों को उसे स्वीकार करने के लिए चुनौती देते हैं, उसे भी अनसुना कर दिया जाता है। इसका एक ही कारण है कि सभी मतों को अपने मत की दुर्बलताओं का ज्ञान हो गया है। अतः वह वाद, वार्तालाप, शंका-समाधान व शास्त्रार्थ कर सत्य को जानना, समझना नहीं चाहते क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें विवश होकर सत्य को स्वीकार करना पड़ सकता है। वह यह भी नहीं चाहते कि उनके मत का कोई व्यक्ति अपने मत को त्याग कर वैदिक धर्मी बने। इसका कारण उनका अपने मिथ्या विचारों, मान्यताओं व सिद्धान्तों से अनावश्यक व अनुचित लगाव, मोह व राग है। ऐसा करके वह अपना वर्तमान जन्म व भावी जन्म बिगाड़ रहे है।
यह जन्म हमें व उन्हें सत्य व असत्य के निर्णय करने के लिए मिला है। अज्ञानता से पूर्ण जीवन व्यतीत कर स्वार्थ सिद्ध करने के लिए नहीं। ऐसा करके वह अपना भावी जीवन बिगाड़ रहे हैं और अपने साथ अपने अनुयायियों के साथ भी अन्याय कर रहे हैं। ईश्वर की दृष्टि मे यह इसलिए छिपा हुआ नहीं है कि वह सर्वान्तर्यामी है। वह सब कुछ देख और समझ रहा है और यथासमय इसका दण्ड सभी अनुचित कर्म व कार्य करने वालों को मिलेगा। हम विचार करने पर यह भी अनुभव करते हैं कि दुनियां के लोग वैदिक मत को भले ही न माने परन्तु कम से कम वह वैदिक धर्म के पैरोकार आर्य समाज के विद्वानों की युक्तियों, कथनों तथा प्रमाणों पर दृष्टि तो डाले, निष्पक्ष रूप से विचार करें और देखें कि सत्य क्या है? वैदिक मत की मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य व उपादेय हैं अथवा उनके मत की मान्यतायें व सिद्धान्त सत्य व उपादेय हैं? यदि वह सत्य को जानेगें ही नहीं तो यह दोहरे अपराध की श्रेणी में आ सकता है जिस कारण उन्हें अधिक दुःख भोगना पड़ सकता है। उन्हीं को ही नहीं अपितु किसी भी व्यक्ति को, चाहे फिर वह आर्य समाज का अनुयायी ही क्यों न हों, वह भी कर्म-फल व्यवस्था के अनुसार दण्ड का भागी होने से दुःख भोगेगा। चिन्तन, विचार, ऊहापोह व वैदिक प्रमाणों से यह जाना गया है कि ईश्वर के यहां दया व करूणा तो है परन्तु पक्षपात व अन्याय नहीं है। वह ऐसा न्याय करता है जो न कम होता न अधिक। इसका प्रमाण चाहिेये तो वह भी दिखा देते हैं। जन्म से एक व्यक्ति किसी निर्धन व अभावग्रस्त परिवार में जन्म लेता है व दूसरा एक धनी व साधन सम्पन्न परिवार में। इसका कारण हमारे प्रतिपक्षी हमें बतायें? यही नहीं अनेक जीवात्माओं को तो मनुष्य जन्म भी नहीं मिलता, वह पशु, पक्षी आदि क्यों बनाये गये हैं? हमारा उत्तर है कि वह पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि योनियों में अपने इस जन्म से पूर्व के मनुष्य जन्म के कर्मानुसार जन्म व सुख-दुख पाते हैं। यह समाज में सर्वत्र प्रत्यक्ष है। पशु व अन्य निम्न योनियां भोग योनियां है। इन योनियों में किए गये कर्मों का फल अगले जन्मों मे नहीं मिलता क्योंकि उन्हें कर्मो की स्वतन्त्रता नहीं है। फल केवल मनुष्य जन्म में किए गये कर्मो का ही मिलता है जिसका कारण मनुष्य को ईश्वर ने कर्म करने में स्वतन्त्र बनाया है और फल भोगने में वह परतन्त्र है। यह सब बातें वेद के आधार पर हैं जिनका ज्ञान आम व साधारण मनुष्य को सत्यार्थ प्रकाश से होता है। वेद की प्रत्येक बाद युक्ति, तर्क, ऊहापोह, चिन्तन व सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से भी सिद्ध होती है।
अतः सत्यार्थ प्रकाश एक ऐसा ग्रन्थ है जो वेदों के स्वरूप, उनके महत्व, उनके उपयोग, उपादेयता व प्रासंगिकता को बताता है। सत्यार्थ प्रकाश वेद को देखने के लिए एक प्रकार से आंख व नेत्रों का कार्य करता है। यदि आंख न हो तो देख नहीं पाते, इसी प्रकार से यदि सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ महर्षि दयानन्द ने न बनाया होता तो सामान्य जन वेद के यथार्थ स्वरूप व महत्व को न जान पाते और साम्प्रदायिक विधर्मी मनमानी कर लोगों का धर्मान्तरण करते। यदि सत्यार्थ प्रकाश न लिखा गया होता तो आज संसार में जो धार्मिक क्रान्ति आयी है, वह कदापि न आई होती। सत्यार्थ प्रकाश के कारण ही आज हमारे प्रिय दलित भाईयों को वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त हुआ है। अनेक दलित भाई आर्य समाज में आकर पण्डित बन चुकें हैं। वेदों का अध्ययन करते-कराते हैं। पुरोहित व बड़े-बड़े यज्ञों के यजमान व ब्रह्मा बनते हैं। आर्य समाज की क्रान्ति यहां तक सफल हुई है कि जिन भाईयों व बहिनों को वेद पढ़ने, सुनने व मन्त्रों का पाठ करने का अधिकार हमारे अज्ञानी पौराणिक भाईयों ने छीन लिया था, उनमें से कई दलित बन्धु व स्त्रियां आज वेदों के आचार्य, प्रवक्ता व वेदभाष्यकार हैं। यहां तक कि कुछ मुस्लिम बहिनों ने भी काशी हिन्दू विष्वविद्यालय, वाराणसी मे संघर्ष कर वेदाधिकार प्राप्त किया और वेद पढे़। ईश्वर अपने पुत्रों की इस योग्यता पर प्रसन्न होकर महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के विद्वानों को जिन्होंने गुरूकुलों की स्थापना कर उसका संचालन किया व कर रहे हैं, उन्हें अपना आशीष प्रदान कर रहे हैं और मौन रूप से प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि मेरे वास्तविक उत्तराधिकारी आर्यसमाज के सच्चे व निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले सदस्य, अधिकारी व विद्वान हैं। स्वामी श्रद्धानन्द, ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं. युधिष्ठिर मीमांसक, पं. जगदेव सिंह सिद्धान्ती, स्वामी ओमानन्द सरस्वती, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, आचार्या प्रज्ञा देवी, आचार्या मेधादेवी, आचार्या सूर्यादेवी चतुर्वेदा, आचार्या नन्दिता शास्त्री आदि अनेक विद्वान व विदुषी बहने हैं।
हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि पुरूष ही नहीं आर्य समाज में हमारी बहनें व मातायें भी पुरूषों से पीछे नहीं है। बहिन आचार्या सूर्यादेवी जी के बारे में हमारा व हमारे एक आचार्य मित्र का मानना है कि उनमें वेदभाष्यकार होने की योग्यता है। हमने भी उनसे यजुर्वेद, सामवेद या किसी एक व सभी चार वेदों पर वेद-भाष्य करने का निवेदन किया था। परन्तु अनेक कार्यो में व्यस्त होने के कारण वह इसे स्वीकार नहीं कर सकीं। यदि वह एक वेद का भी संस्कृत-हिन्दी व केवल हिन्दी में भाष्य कर देतीं तो आर्य समाज गर्व से सनातन धर्म व पौराणिक समाज के लोगों को कह सकता था कि जिन बहनों व माताओं से उन्होंने मध्यकाल में वेदाध्ययन का अधिकार छीन लिया था, उन्हें महर्षि दयानन्द व उनके द्वारा स्थापित आर्यसमाज के अनुयायी विद्वानों ने उनका न्यायोचित अधिकार लौटाकर उनमें से एक को वेदभाष्यकार भी बना दिया है। आज वेद-विदुषी बहनें तो आर्य समाज में इतनी हैं कि उनकी गणना करना सम्भव नहीं है। इसका श्रेय सत्यार्थप्रकाश और इसकी शिक्षाओं को ही सर्वाधिक है जो वेदों का महत्व जनसामान्य में प्रचारित करता है।
इस लेख में ईश्वर प्रदत्त ज्ञान वेद के महत्व व इसको जन-जन तक पहुंचाने में सत्यार्थ प्रकाष की भूमिका व उसके प्रभाव को अंकित करने का प्रयास किया गया है। लेख की उपादेयता का मूल्यांकन सुविज्ञ पाठकों के हाथों में है।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , दयानंद जी की बातों पर लोग अमल करने लगे तो संसार में सुख शान्ति रह सकती है लेकिन हम धार्मिक ग्रन्थ पढ़ तो लेते हैं लेकिन कर्मकांड तक ही सीमत रह जाते हैं .
जी धन्यवाद्। सही कहा आपने। सादर नमस्ते एवम धन्यवाद्।