फेसबुक के रिश्ते
मेरे एक बहुत अच्छे फेसबुक मित्र थे । उनसे अक्सर बातें होती रहती थी । वो मेरी और मैं उनकी पोस्ट भी खूब लाइक और कमेंट भी करते रहते थे । इनबॉक्स में भी लंबी लम्बी बातें होती रहती थी । घर परिवार की, समाज की, राजनीति की साहित्य की । हर बात पर हम खुलकर बात करते थे । कभी सहमति होती तो कभी असहमति भी । लम्बी लम्बी बहस भी हो जाती थी । अपने स्वभाव अनुसार मैं अपनों से बड़ो से कभी बहस नही करती । लेकिन ये तो फेसबुक है ना, यहाँ किसका डर । किसी को अच्छा लगता है तो रहो मित्र वरना तुम अपने रास्ते मैं अपने रास्ते ।
एक दिन उनसे बात करते हुए उनके बेटे के बारे में बात होने लगी । मित्र मुझसे जितने बड़े उनका बेटा मुझे उतना ही छोटा था । मैंने किसी बात पर उनके बेटे की तारीफ क्या कर दी । उन्होंने तो गलत ही समझ लिया । असल जिंदगी में ना कभी मैंने उन्हें देखा था उनके ना उनके बेटे को ।
उनके द्वारा उनके बेटे को लेकर की गई वो मजाक मुझे इतनी बुरी लगी कि मैंने उन्हें बोल दिया– “मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास ‘निर्मला’ याद आ गया । सदी बीत गई लेकिन पुरुष मानसिकता अब भी नही बदली ।”
इसके बाद उन्हें अपनी कही बात का अहसास हुआ और वो खूब माफ़ी मांगते रहे । लेकिन मेरे मन में एक ऐसी गाँठ पड़ गई थी जो कभी नहीं खुल सकती थी । मानसिक तनाव में मैंने उन्हें ब्लॉक कर दिया था और मुक्त हो गई थी बेबुनियाद के इल्जाम के रिश्ते से ।
नीता बहन , आज का यह फेस बुक अच्छा भी हो सकता है और इतना बुरा भी किः सारी जिंदगी आप को भूलता नहीं है . यही कारण है कि मैं दो चार ऐसे दोस्त जिन्हें अछि तरह जानता हूँ, कभी खामखाह दोस्ती नहीं करता .आप तो मुझ से बहुत छोटी हैं और मैंने जिंदगी में बहुत कुछ देखा है . मेरा और मेरी अर्धांगिनी का रिश्ता जब मैं १२ वर्ष का था और अर्धांगिनी साहेबा महज़ ९ वर्ष की थी, हमारे दादाओं ने तय किया था .इस में बताने वाली बात यह है किः उन्होंने यह रिश्ता ऐसे ही नहीं कर दिया था, दोनों ने एक दुसरे के खानदान को अछि तरह इन्वेस्टीगेशन करके किया था और आज यह फेस बुक के रिश्ते तो एक मज़ाक बन कर रह गिया है .फेस बुक की बहुत कहानिया सुनने पढने में आती हैं और यह आप का संस्मरण दूसरों के लिए सोच विचार करने वाला है .आगे का संस्मरण जान्ने का इछक हूँ , धन्यवाद .