लघुकथा : भगवान
मां यह लाकेट आप लेलो, बहुत अच्छा है उस बुर्का पोश औरत का लगभग छ: साला बेटा ज़िद करने लगा तो उसने नाराज़गी जताई, “बेटा यह हम नहीं ले सकते।”
“क्यूं नहीं ले सकते, देखो मां इस बच्चे की हाथी जैसी सूंड भी है जो कितनी अच्छी लग रही है।”
“बेटा! यह बच्चा नहीं है।” उसने इधर उधर देख कर धीरे से फुसफुसाया।
“ तो फिर यह कौन हैं?”
“यह हिंदुओं के भगवान हैं, और हम मुसलमान हैं यह हमारे नहीं हैं इसलिये हम इस लाकेट को नहीं ले सकते।”
“लेकिन मां स्कूल में टीचर कह रही थी कि हम सबका भगवान तो एक ही है। क्या सबके भगवान अलग अलग होते हैं और टीचर झूठ बोलती है?”
— नीता सैनी , दिल्ली
हा हा , ऐसा ही तो आज चल रहा है ,सब के भगवान् इल्ग्ग इल्ग्ग ही तो हैं, इसी लिए तो संसार में अमन चैन नहीं होता .हर कोई अपने धर्म को ही सही मानता है और यही वजा है, सारी उम्र मैं धर्मों के चक्कर में नहीं पढ़ा हूँ .लघु कथा अछि लगी .