वेदों में ईश्वर का स्वरुप, श्री कृष्ण और स्वामी दयानन्द
ओ३म्
मानव धर्म, संस्कृत और सभ्यता का आरम्भ सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर प्रदत्त चार वेदों के ज्ञान से हुआ है। संसार के सभी लोगों की धर्म, संस्कृति और सभ्यता वही है जो वेदों में वर्णित व समर्थित है। इसका प्रमुख आधार यह है कि वेद मनुष्यों की रचना न होकर साक्षात ईश्वर की रचना है जिसने कि इस सृष्टि वा ब्रह्माण्ड को बनाया है। जब भौतिक सृष्टि बनी और इसमें नाना समस्त प्राणियों सहित मनुष्य सृष्टि का व्यवहार आरम्भ हुआ तो उस समय ज्ञान देने वाली एकमात्र सत्ता केवल अनादि व नित्य ईश्वर ही थी। मनुष्य में यह क्षमता नहीं है कि वह ज्ञान को उत्पन्न कर सके अर्थात् बिना ज्ञान की प्राप्ति के स्वयं को ज्ञानवान कर सके। मनुष्य के पास जो बुद्धि है उसकी उन्नति ईश्वर, विद्वानों, अध्यापक व पुस्तकों आदि के द्वारा ही होता है। सृष्टि के आरम्भ ईश्वर के अलावा ज्ञान प्रदान करने वाला कोई साधन नहीं था। अतः ईश्वर को ही सृष्टि की आदि में ज्ञान देने वाला स्वीकार करना एकमात्र विकल्प व उपाय है। ईश्वर ज्ञानस्वरुप सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान सत्ता है। इसी कारण उसने इस सृष्टि की रचना की है। यदि ईश्वर सर्वज्ञ न होता तो फिर यह सृष्टि अस्तित्व में नहीं आ सकती थी। ईश्वर ने जो ज्ञान दिया वह वेद है।वेद ज्ञान की उत्पत्ति से संबंधित सभी प्रश्नों के समाधानकारक व सन्तोषजनक उत्तर महर्षि दयानन्द ने अपने विश्व विख्यात ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में दिये हैं। ईश्वर सर्वव्यापक और सर्वान्तर्यामी है अतः अपनी व्यापकता से वह चार ऋषि समान जीवात्माओं के भीतर आत्म-प्रेरणा द्वारा वेदों का ज्ञान देता है। इसके बाद वेद ज्ञान के प्राप्त कर्ता ऋषि इस ज्ञान का अन्य लोगों में प्रचार करते हैं। यही ज्ञान सृष्टि की आदि से आज तक चला आ रहा है। ईश्वर सृष्टि के आरम्भ में केवल एक बार ही ज्ञान देता है। उसके बाद वह पूरे सृष्टि काल में वेदों का ज्ञान वेद व किसी अन्य रूप व नाम से नहीं देता। सभी मनुष्य आदि प्राणी उसके पुत्र के समान ही हैं। वेदों के सभी ज्ञानी ही उसके सन्देश वाहक होते व हो सकते हैं अन्य नहीं। वेदों के ईश्वरीय ज्ञान होने के कारण इसकी रक्षा करना संसार के प्रत्येक मनुष्य का धर्म का कर्तव्य है। जो इसमें बाधक व उदासीन हैं वह ईश्वर की अवज्ञा के दोषी हैं।
ईश्वर का वास्तविक स्वरुप जानने का एक मात्र साधन चार वेद और ऋषियों के बनाये हुए वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं जिन्होंने समय-समय पर उन्होंने बनाया है। महाभारत काल के बाद हमारे वेदों के पण्डितों ने आलस्य व प्रमाद के कारण वेदों की उपेक्षा की जिससे वेदों का यथार्थ स्वरुप विलुप्त हो गया। ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महर्षि दयानन्द ने अनेक गुरुओं और मुख्यतः मथुरा के प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती से विद्यार्जन कर वेदों के यथार्थ स्वरुप को जाना। गुरु की पे्ररणा और चारों वेदों सहित सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का मंथन कर साथ हि अपनी ऊहा व प्रतिभा का उपयाग कर उन्होंने वेदों के आधार पर समस्त मानव कर्तव्यों व समग्र मानव धर्म का उपदेश किया जो उनके ‘सत्यार्थ प्रकाश’ आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। अपने समस्त वैदिक ज्ञान के आधार महर्षि दयानन्द ने ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरुप प्रस्तुत किया है जिसके अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप है। वह निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। ईश्वर ज्ञानस्वरुप, प्रकाशस्वरुप, सुखस्वरुप, कर्म-फल के बन्धों से पूर्णतया मुक्त, जन्म-मरण आदि से मुक्त, जीवात्माओं को उनके कर्मानुसार जन्म व मृत्यु प्रदान करने सहित उन्हें सुख व दुःख देने वाला है। ईश्वर जीवात्मा के भीतर भी व्यापक है और जीव व्याप्य है। यही ईश्वर सभी मनुष्यों द्वारा उपासनीय है। वेदों पर संस्कृत व हिन्दी में आर्य विद्वानों के भाष्य व टीकायें उपलब्घ हैं। भाष्य के अंग्रेजी व कुछ के उर्दू अनुवाद भी उपलब्ध है जिसे पढ़कर ईश्वर के यथार्थ स्वरुप व धर्माःधर्म सहित सभी विषयों को जाना जा सकता है।
श्री कृष्ण जी का जन्म माता देवकी और पिता वसुदेव जी से हुआ था। वह वसुदेव व माता देवकी जी की सन्तानों में आठवीं सन्तान थे। उनके मामा कंस थे जिन्होंने उनसे पूर्व उत्पन्न उनके भाई व बहनों का वध करा डाला था। किसी प्रकार कृष्ण जी बच गये और उनका पालन पोषण माता यशोदा द्वारा अन्यत्र हुआ। कृष्ण जी सान्दीपनी गुरु से पढ़े और गुरुकुल की वैदिक शिक्षा से ही कृष्ण जी के व्यक्तित्व, उनका बौद्धिक विकास व चरित्र का निर्माण हुआ। युवावस्था प्राप्त करने तक उनको अनेक विरोधियों व शत्रुओं का सामना करना पड़ा। समयानुसार उन्होंने द्वारका को अपनी राजधानी बनाया। पाण्डवों से कृष्ण जी के निकट पारिवारिक रक्त संबंध थे। अर्जुन जी उनके विश्वसनीय मित्र थे। उन दिनों कौरव व पाण्डवों में राज्य पर अधिकार को लेकर कलह चल रही थी। कौरव-राज धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन पाण्डवों के विरोधी थे और उनके अधिकार हड़पना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने अनेक कुत्सित चालें चलीं व षडयन्त्र किये। एक षडयन्त्र के अनुसार पाण्डवों में सबसे बड़े राजा युधिष्ठिर को जुए के लिये सहमत कराया गया जिसमें पाण्डव अपना सर्वस्व हार गये। इस जुए की शर्तों का पाण्डवों ने पालन किया जिसमें राज त्याग कर वनों में जाना व अज्ञातवास भी सम्मिलित था। सभी शर्तें पूरी करने पर भी दुर्योधन ने पाण्डवों को उनके न्यायपूर्ण अधिकार नहीं लौटाये। इन अधिकारों को न लौटाने के कारण युद्ध की स्थिति बनी। यद्यपि युद्ध को रोकने के श्री कृष्ण जी ने सभी सम्भव एवं उचित प्रयास किये परन्तु युद्ध रोका न जा सका। श्री कृष्ण जी इस युद्ध में धर्म पर स्थित पाण्डवों के साथ थे। उनके मार्ग दर्शन में ही पाण्डवों ने युद्ध लड़ा जिसमें पाण्डवों की विजय हुई और कौरव वंश के दुर्योधन सहित सभी भाई व सहयोगी मित्र आदि मारे गये।
महाभारत युद्ध में पाण्डवों को प्राप्त हुई विजय का श्रेय केवल श्री कृष्ण जी को ही था जिसे सभी ने स्वीकार किया। इस युद्ध व इससे जुड़ी अनेकानेक बातों का इतिहास महर्षि वेद व्यास जी ने भारत ग्रन्थ में लिखा था। इस इतिहास में समय-समय पर मिलावट के रुप में प्रक्षेप होते रहे। आज जो महाभारत ग्रन्थ उपलब्ध होता है वह प्रक्षिप्त महाभारत है। महाभारत का ही एक भाग ‘‘गीता” है। इसका अलग से प्रकाशन एवं प्रचार भी किया जाता है जिस कारण कृष्ण जी की प्रसिद्धि सम्प्रति देश व विश्व में सर्वत्र है। यह भी उल्लेखनीय है कि गीता की अधिकांश शिक्षायें वेदानुकूल हैं। गीता व महाभारत से मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष और सामाजिक असमानता आदि सिद्ध नहीं होते। महाभारत के बाद श्री कृष्ण जी का भी परलोकगमन हुआ जैसा कि अन्य सभी मनुष्यों व क्षत्रियों आदि का होता आ रहा है। इसके बाद के समय में समाज में वेदों की विद्या विलुप्त होने से ज्ञान का अन्धकार छा गया जिसके परिणाम से यज्ञों में हिंसा होने लगी और नाना प्रकार के अन्धविश्वास व कुरीतियां समाज में प्रचलित हो गईं। इस अविद्या के वातावरण में देश में वाममार्ग एवं बौद्ध व जैन आदि नास्तिक मतों का आविर्भाव हुआ। इनका प्रभाव बढ़ा तो स्वामी शंकराचार्य जी ने इनसे शास्त्रार्थ किया व इन्हें पराजित कर वेद मत को पुनः प्रतिष्ठित किया। स्वामी शंकराचार्य जी को अल्पायु में जैनी शिष्यों द्वारा विष दे दिये जाने के कारण वैदिक मत का प्रचार व प्रसार न हो सका और अविद्या दूर न की जा सकी। कालान्तर में इन मतमतान्तरों के परस्पर झगड़ों और अविद्या आदि के कारण देश में विदेशी विधर्मियों की गुलामी का समय आरम्भ हुआ जिसमें आर्य हिन्दू जाति को अपार कष्ट व हानि उठानि पड़ी। बौद्ध व जैन मत के बाद उनकी देखा-देखी आर्य हिन्दुओं में भी मूर्ति पूजा आरम्भ की। बौद्ध व जैन महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी की मूर्तियों की पूजा करते थे, अतः आर्य हिन्दुओं ने इतिहास से ढूंढ कर मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और योगेश्वर श्री कृष्ण जी की मूर्तियों का निर्माण कराकर उनकी पूजा आरम्भ की। बड़े-बड़े मन्दिर बने परन्तु हिन्दुओं का सुदृढ़ संगठन और रक्षा इन अन्धविश्वासों एवं अवैदिक कार्यों से न हो सकी।
ईसा की उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सन् 1863 में भारत में धर्म की क्षितिज पर ऋषि दयानन्द का प्रादुर्भाव होता है। अपने गुरु स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा से उन्होंने आर्य हिन्दू जाति के सभी दुःखों का मूल कारण वेद विरुद्ध मूर्तिपूजा व अवैदिक अविद्याजन्य परम्पराओं को जानकर उनका खण्डन किया और सच्ची ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना प्रचलित की। अवैदिक परम्पराओं का खण्डन कर ज्ञान से परिपूर्ण व मानव हितकारी वैदिक परम्पराओं को प्रचलित कर उन्होंने उनका प्रचार किया। असत्य का खण्डन और सत्य का मण्डन होने से देश में जागृति आई। अन्धविश्वास न केवल आर्य हिन्दुओं में था अपितु यह संसार के सभी मत-मतान्तरों में विद्यमान था। सभी का आधार ‘अविद्या’ पर प्रहार होने से वह हिल गया। किसी से कोई उत्तर न बना परन्तु अज्ञानता युक्त अविद्या एवं अपने अपने क्षुद्र स्वार्थों के कारण लोग सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग नहीं कर पाये। स्वामी दयानन्द द्वारा सत्य के प्रचार प्रसार के लिए स्थापित आर्य समाज ने अशिक्षा, सामाजिक अन्याय व असमानता सहित देश की पराधीनता को दूर करने के लिए वैचारिक क्रान्ति कर उसे क्रियान्वित किया व कराया। इसी का परिणाम आज का किंचित उन्नत आधुनिक भारत है। जहां-जहां व जिस क्षेत्र में लोगों व सरकार ने ऋषि दयानन्द जी की बात को नहीं माना, वहां देश को भारी कीमत चुकानी पड़ी व पड़ रही है। देश को विभाजन की पीड़ा व इससे जुड़ी अनेक अमानवीय पीड़ादायक स्थितियों से गुजरना पड़ा। आज की परिस्थितियों में विश्व में सुख व शान्ति स्थापित करने का एक मात्र साधन यदि है तो वह आर्यसमाज की वैदिक विचारधारा है। यदि संसार के सभी लोग वैदिक विचारधारा को स्वीकार कर उसके अनुसार आचरण करें और सभी व्यवस्था वेदों के सिद्धान्तों पर चलें, तो विश्व में शान्ति स्थापित हो सकती है।
श्री कृष्ण जन्माष्टी पर्व पर हमें यह जानना चाहिये कि श्री कृष्ण जी वेद भक्त व उसके अनुयायी थे। उनका कोई सिद्धान्त, मान्यता व कार्य वेद विरुद्ध नहीं था। वह ईश्वर के भक्त व उपासक थे और इसी कारण वह योगेश्वर कहलाये। जन्म लेने, सुख-दुःख का भोग करने व मृत्यु को प्राप्त होने के कारण वह ईश्वर से भिनन उन्नत व श्रेष्ठ जीवात्मा थे। श्री कृष्ण जी के समय में सर्वत्र एक ही धर्म वैदिक धर्म का प्रचलन, पालन व प्रसार था। आज के सभी धर्मों व मत-मजहबों के पूवर्ज आर्य हिन्दू थे। श्री कृष्ण जी को अपने समय में ऋषि दयानन्द जी की तरह वेद प्रचार व खण्डन-मण्डन की आवश्यकता नहीं थी। इस कार्य को करने के लिए विद्वान व ऋषि-मुनि देश में विद्यमान थे। उन्होंने अपने जीवन में अन्याय का विरोध किया और अन्याय पीड़ितों का साथ ही नहीं दिया अपितु उन्हें न्याय दिलाया। अंहिसा व हिंसा की दृष्टि से देखें तो वह ऐसे महात्मा थे जो प्राणीमात्र के अहित की बात सोच भी नहीं सकते थे। इसके विपरीत निर्दोष व अन्याय पीड़ितों की सहायता के लिए वह युद्ध के लिए भी उद्यत रहते थे जिससे पाप समाप्त होकर धर्म और शान्ति का राज्य स्थापित हो। यही उनके जीवन की शिक्षा है। विचार, सिद्धान्त व वेद निष्ठा की दृष्टि से श्री कृष्ण व स्वामी दयानन्द जी में कहीं कोई अन्तर नहीं था। इसी लिए उन्होंने सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी के बारे में कहा है कि ‘श्रीकृष्ण का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त (श्रेष्ठ व महान) पुरुषों के सदृश है। श्रीकृष्ण ने जन्म से मरण पर्यन्त कुछ भी बुरा (अनुचित व अन्याय का) काम किया हो, ऐसा (महाभारतकार महर्षि वेदव्यास जी ने) नहीं लिखा।’ इसलिए पुराणकार आदि अन्य किसी का श्री कृष्ण के दूषित चरित्र विषयक विचार मान्य नहीं हो सकता। हमें कृष्ण जी के वैदिक स्वरुप व शिक्षाओं को ही मानना चाहिये और वेदों के विपरीत उनके नाम पर प्रचलित व उनसे जुड़ी सभी प्रकार की अनुचित व निन्दित बातों व परम्पराओं का त्याग करना चाहिये। यही हमें श्री कृष्ण जी के जीवन व वेदों का सन्देश समझ में आता है। श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व पर हमें कृष्ण जी जैसा बनने का संकल्प लेना चाहिये। इति।
–मनमोहन कुमार आर्य