लघुकथा : मन का मैल
15 साल की बेटी को छोड़कर जब विनेश गया था, तब दीपक ही उसकी बेरंग जिंदगी मे रंग भरने आया था. पर संध्या को क्या पता था कि उसके साथ छल हो रहा है. संध्या तो अपनी आत्मा में बसा चुकी थी दीपक को और वो भोरों की तरह रसपान करके, बिना कुछ कहे जा चुका था. संध्या उसकी बेवफाई से टूट चुकी थी, दिल में नफरत बढती जा रही थी. इसी नफरत के साथ जीना सीख लिया था, अब यही नफरत उसकी ताकत थी. 13 साल हो गए थे इसी नफरत के साथ जीते हुए।
”माँ… माँ…’
‘क्या हुआ क्यों चिल्ला रही हो?’ बेटी की आवाज से संध्या अतीत से बाहर आ गई. आज उसकी बेटी एक सफल डाक्टर बन चुकी थी।
‘मेरे साथ हॉस्पिटल चलो कुछ दिखाना है.’
अस्पताल पहुंची तो सामने बेड पर दीपक था. दोनों किडनी खराब हो चुकी थी. दूसरी किडनी नही मिल रही थी, डायलिसिस पर था.
‘हमारे पापों की सजा हमे देर सबेर मिलती जरूर है, मिस्टर दीपक!… चल बेटी.’ कहकर वह चल पड़ी.
उसने अपन बेटी को बताया कि मैं अपनी किडनी दूंगी दीपक को. सुनकर बेटी आश्चर्य में पड़ गयी. ‘माँ, आप इतना बडा फैसला कैसे ले सकती हैं? वो भी उस इंसान के लिए जिसने आपको नफरत के सिवा कुछ न दिया…’
‘हाँ. उसे अपने किये की सजा मिल चुकी है. उसकी सजा के साथ मेरे मन का मैल भी धुल गया है.’
संध्या दीपक को किडनी देकर अपने हिस्से का प्यार निभा रही थी, उस पापी को!
— रजनी विलगैयां