ऋषि दयानन्द के साक्षात्दर्शनकर्ता का उनके कुछ प्रसंगों का वर्णन
ओ३म्
आज हम इस लेख में पं. नथमलजी तिवाड़ी, अजमेर का निजी अनुभवों पर आधारित ऋषि दयानन्द के जीवन की कुछ घटनाओं का वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं जो वर्तमान के अनेक आर्य विद्वानों एवं पाठकों की दृष्टि से ओझल है। इसका प्रकाशन परोपकारिणी सभा के वर्तमान प्रधान डा. धर्मवीर ने वेदवाणी के दयानन्द-विशेषांक, 1987 में कराया है। वहीं से इस सामग्री को साभार प्रस्तुत कर रहे हैं।
श्री नथमलजी तिवाड़ी, अजमेर लिखते हैं कि जब मैं करीब 17 वर्ष का था, स्थानीय नरसिंह जी के मन्दिर में रात्रि समय में पुराण की कथा हुआ करती थी। मुझे बड़ी रोचक मालूम हुआ करती थी जिसमें सांपों की कथा रुचिकर होती थी। उन्हीं दिनों में स्वामीजी (ऋषि दयानन्द) के व्याख्यान सेठ गजमल जी की हवेली (अजमेर) में हुआ करते थे। एक दिन मैं भी व्याख्यान सुनने गया, उसी दिन ‘‘पुपाणों के गप्पोड़ों” पर व्याख्यान हुआ। मेरे पर बड़ा असर हुआ। जब मैं दूसरे दिन मन्दिर में गया, व्यासजी से जब शंका करने लगा तो उन्होंने मेरे पिताजी से शिकायत की कि ‘‘एक संन्यासी ईसाई धर्म के प्रचार के लिये यहां आया हुआ है, वह ईसाइयों का नौकर है। तुम्हारा पुत्र उसका भाषण सुनकर नास्तिकता की बातें करता है कहीं ऐसा न हो कि उसके बहकावे में आकर वह धर्मभ्रष्ट हो जाय। इसलिये अपने पुत्र को उसका व्याख्यान सुनने मत जाने दिया करो।” व्यास जी के कथन का असर पिताजी पर पड़ गया। उन्होंने मुझे मना किया कि तुम व्याख्यान में मत जाया करो और पण्डितों से समझाने की चेष्टा की परन्तु मेरी अकाट्य युक्तयों से उन्हें भी स्वीकार करना पड़ा कि यह जो कुछ कहता है सब ठीक है।
मैं बराबर व्याख्यान में जाता रहा। वहां पर पादरी ग्रे साहब तथा मास्टर धन्नामल जी से भी ईसाई और जैन धर्म पर चर्चा लिखित होती रही। अन्त में सूर्य के सामने जुगनू का प्रकाश कब ठहर सकता है। मुझे याद है कि लिखने वालों में पं. चन्दूलाल जी थे। अन्त में पादरी ग्रे साहिब ने स्वामी जी से कहा कि आप मेरे बंगले पर आवें वहां पर वार्तालाप करेंगे।
एक बार एक स्थान से हम लोग पुस्तकें लेकर स्वामी जी के साथ व्याख्यान के लिये पैदल आ रहे थे, स्वामी जी अतीव वेग से चलते थे हमें उनके साथ भागना पड़ता था।
एक बार पाण्डेय श्यामसुन्दरजी ने मेरी शिकायत स्वामी जी से की कि महाराज ! मेरे घर के पास जैन मन्दिर में एक जैन पण्डित रहता है यह लड़का उसके साथ बुरी तरह से असभ्य शब्दों में बहस कर रहा था कि ‘‘अगर तुम्हारे ठाकुर जी सच्चे हैं तो हम उन पर पेशाब कर देते हैं तो वे हमारा क्या कर सकते हैं।” इत्यादि बहस करके उन्हें तंग करता रहता है। जब मैं स्वामी जी के पास गया तो उन्होंने फरमाया कि तेरी शिकायत आई है। सो मीठे शब्दों में बातचीत करना ‘‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्” कहकर मुझे समझाया।
मैं और मेरे मित्र पं. मातादीन जी मिश्र और मेरे बहनोई पं. प्रभूलाल जी व्यास नित्य स्वामी जी के पास जाया करते थे। रात्रि को 10 बजे तक बराबर सत्संग लोगों से होता रहता था, हम लोग भी सुना करते थे। एक दिन स्वामी जी के लिये हम लोग आगरे दरवाजे पर खरबूजे ले रहे थे। उस समय काशी के एक विद्वान् ने हम से पूछा कि लड़को ! तुम बता सकते हो कि एक दयानन्द नाम का साधु यहां पर कहां ठहरा है? हमने कहा कि हम लोग वहीं पर जा रहे हैं चलिये। रास्ते में पण्डित ने कहा कि मैं 40 वर्ष तक काशी में पढ़ा हूं। मैं उसका मानभंग करुंगा। वह लोगों को बहका कर धर्म विमुख करता है इत्यादि बहुत सी बातें उसने हम से कहीं। मैंने वेद शास्त्रों का अध्ययन किया है इस प्रकार बार-बार उसने कहा। जब स्वामी जी के पास पहुंचे, स्वामी जी ने उसे बैठने को कहा। वह तो एकदम घाराप्रवाह संस्कृत में बोलने लगा, श्री स्वामी जी हंसते रहे। जब वह बोल चुका तब श्रीमुख से (स्वामी जी ने) जो-जो शंकायें उसके हृदय में थी और करना चाहते थे, (उनं) एक-एक (शंका) को कहने लगे, अमुक शंका है तो यह उत्तर है, इस प्रकार सारी शंकाओं को पहिली शंका से ही सुनाया (व समाधान किया) और कहने लगे इनके अतिरिक्त (अन्य) प्रश्न हो तो कहो उत्तर दिया जावेगा। अपने प्रश्नों का इस प्रकार उत्तर सुनकर पण्डित जी ने अपना साफा स्वामी जी के चरणों में रखकर क्षमा मांगी और कहा कि आप तो योगी और अन्तर्यामी हैं। मैं तो आया था विजय प्राप्त करने को परन्तु मेरा अभिमान चूर-चूर हो गया। स्वामी जी ने कहा नहीं-नहीं, विद्वानों में ऐसा वार्तालाप हुआ ही करता है और स्वामी जी ने पंडित जी की विद्या की, योग्यता की प्रशंसा की।
अजमेर आर्यसमाज की स्थापना श्री स्वामी जी के कर कमलों द्वारा हुई थी। स्थान कल्याणमल जी की कोठी थी। उस समय समाज के प्रधान बाबू हरनामसिंह जी ओवरसीयर, मन्त्री पण्डित सुखदेवप्रसाद जी हेड पण्डित नार्मल स्कूल, उपमन्त्री बा. मुन्नालाल जी उप्रेती ड्राफ्ट्समैन, कोषाध्यक्ष-पं. कमलनयन जी, पुस्तकाध्यक्ष बाबू बनवारीलाल जी क्लर्क लोकोशाप, सभासद्-पं. प्रभुलाल जी व्यास, पं. मातादीन जी मिश्र, बाबू लालचन्द जी हेड क्लर्क पुलिस दफ्तर, पं. चन्द्रिका प्रसाद जी लेट चीफ क्लर्क कैरेज दफ्तर, बा. जेठमल जी इंजनीयरिंग क्लर्क, पं. नाथूलाल जी ड्राफ्ट्समैन, बा. पद्मचन्द जी जेठमल जी सोढा, पाण्डेय श्यामसुन्दर जी, बलदेवप्रसाद जी वाजपेयी, पं. भोलानाथ जी आदि आदि थे। मैं पूरा 18 वर्ष का नहीं था इसलिये मेरा नाम सभासदों में नहीं लिखा गया। मैंने चन्दा इकट्ठा करने की सेवा स्वयं स्वीकार की। पीछे कुछ महीनों के बाद सभासदों की सूची में मेरा नाम लिखा गया। स्वामी जी के व्याख्यान जो शहर में होते थे वे पं. भागराम जी द्वारा होते थे।
एक दिन स्वामी जी के पास कचहरी से आते हुए पं. भागराम जी कोठी पर आये। हम कई एक वहां पर बैठे हुए थे। स्वामी जी से पण्डित जी ने कहा–महाराज ! कुछ एकान्त में बातचीत करना चाहता हूं। उसी समय स्वामी जी ने उत्तर दिया कि पण्डित जी ! यहां रंडी, रिश्वत, राजद्रोह आदि का स्थान तो नहीं है। धर्म के विषय की बात है तो सबके सामने ही कहिये जिससे सब लोगों को लाभ होवे। मैं कोई गुप्त बात नहीं करता या किसी के कहने से किसी सम्प्रदाय का पक्ष भी नहीं लेता। सत्य शास्त्रों के विषय में आमतौर से उपदेश व शंका-समाधान करता हूं। यह सुनकर पण्डित जी चुप हो गये। कचहरी से आते हुए सदैव स्वामी जी के पास आया करते थे।
स्वामी जी नित्य प्रति स्नान करने के पीछे दिन में दो या तीन बार गाजनी (गुलतानी) मिट्टी का सारे शरीर में लेपन अच्छी तरह से किया करते थे।
स्वामी जी प्रातःकाल एक सेर दूध पीकर काम पर बैठते थे। भोजन मध्यान्ह के समय एक बार करते थे। रघुनाथ उपाध्याय एक नामी रसाईया को मैंने लाकर स्वामी जी के पास रक्खा था। उसकी बड़ी–प्रशंसा करते थे कि भोजन के पदार्थ ऐसे उत्तम बनाता है कि अधिक खाने में आ जाता है।
एक दिन स्वामी जी ने व्याख्यान में यह समाचार सुने कि शहर के बाहर गंज मुहल्ले में भरतपुरिये चमारों के घर जो फूस के थे सब के सब जल गये। फौरन ही उनके खाने–पीने के लिये अपील की और तुरन्त चन्दा कराया। उसी समय भोजन के लिये चने और पूरियों का प्रबन्ध हो गया। पीछे व्याख्यान प्रारम्भ किया।
एक दिन मैंने महाराज से पूछा कि मैं संस्कृत पढ़ना चाहता हूं। क्या शुरू करूं? उन्होंने फरमाया कि पहले संधिविषय और वर्णोच्चारण शिक्षा पढ़ो जिन की एक-एक कापी उन्होंने अपने कर-कमलों द्वारा प्रदान की जिन्हें मैंने महाराज की प्रसादी समझ कर अपने पास सुरक्षित रख छोड़ा है।
अजमेर से स्वामी जी ने मसूदा प्रस्थान किया। श्री पं. नथमल जी तिवाड़ी मसूदा यात्रा में भी स्वामी जी के साथ रहे और उसका वर्णन भी उन्होंने किया है। यदि इसे प्रस्तुत करें तो यह आगामी दो लेखों में पूर्ण होगा। यदि पाठक चाहेंगे तो उसे भी प्रस्तुत किया जा सकता है। इस लेख में स्वामी जी के जीवन के अनेक प्रसंग दिये गये हैं। हमें सभी प्रसंग अच्छे लगे। भोजन में स्वामी जी का यह कथन कि ‘भोजन के पदार्थ ऐसे उतम बनाता है कि अधिक खाने में आ जाता है’ और गंज मुहल्ले में दलित बन्धुओं के फूस के घरों में आग लगने पर तत्काल उनकी सहायता करने का प्रसंग तो बहुत ही अच्छा लगा। आशा है कि पाठकों को भी यह प्रसंग अच्छे लगेंगे। इति शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन भाई , लेख अच्छा लगा .
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् श्रधेय श्री गुरमेल सिंह जी।
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद् श्रधेय श्री गुरमेल सिंह जी।