ग़ज़ल
मुहब्बत में नजाकत से मुझे पैगाम लिक्खा है
सनम ने रेत पर उँगली से मेरा नाम लिक्खा है
मुबारक हो मिरे महबूब दुनिया की तुझे दौलत
मेरी तकदीर ने हिस्से में मेरे जाम लिक्खा है
मुहब्बत की लकीरें हाथ में शायद नहीं मेरे
चमन की हर कली को भी कहाँ गुलफाम लिक्खा है
कुछ ऐसी बेरुखी से खत लिखा उसने मुझे साहिब
किसी दुश्मन ने जैसे मौत का पैगाम लिक्खा है
तुम्हारे सुर्ख होंठो पर ये काला तिल लगे ऐसा
किसी सामान पे जैसे कि उसका दाम लिक्खा है
हमारी जिंदगी में अब नहीं शामिल कोई होगा
हमारी सांस की लय पर तो सीता राम लिक्खा है
— धर्म पाण्डेय
बेहतर ग़ज़ल !
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