बरसात
“रूत तो बहुत आयी बरसात की, भीगना अच्छा ना लगता था।
इस बार न जाने क्या बात हुयी, घंटो भीगते रहे बरसात में।”…….
चार वर्ष पहले राज को लिखा अपना खत पति के कागजो में देख मैं हैरान हो गयी।
“मेरा खत यहां कैसे आया, क्या सागर मेरे अतीत के बारे में जानता है ?” ये विचार मन में आते ही मैं तनाव से घिर गयी। ख़त को हाथ में लिए मैं बाहर ‘गार्डेन’ में आ बैठी और सोचते सोचते ठंडी हवा के झोंको के साथ ही अतीत में बहती चली गयी।
………. राज ! जिसे बरसात की ठंडी फुहारों में सड़कों पर भीगना अच्छा लगता था और मैं जो बारिश के नाम से ही डरती थी, एक दूसरे से मिले और जल्दी ही नजदीक आ गये। कैंपस से शुरू हुआ हमारा प्यार ‘ग्रेजुएशन’ के बाद और गहरा हो चुका था। उसके प्यार ने कब मुझे भी बारिश का दीवाना बना दिया पता ही नहीं चला। ” जिंदगी जिन्दादिली का नाम है मुर्दा दिल क्या ख़ाक जिया करते है” को अपना आदर्श मानने वाले राज ने कब ‘आर्मी ज्वाइन’ की और कब सरहद के लिए अपनी जान भी कुर्बान कर दी। साथ जीने साथ मरने की कसमें खाने वाले उन लम्हों के बीच ये सब कब और कैसे हुआ, मैं समझ ही नहीं पायी। इस सच को मैं तब स्वीकार कर पायी जब ‘डिप्रेशन’ के तीन महीने अस्पताल में गुजारने के बाद मैं अस्पताल से घर लौटी। शायद इसके कुछ समय के बाद ही सागर का रिश्ता मेरे लिए आया। घर परिवार में सभी ने अपने अपने तरीके से पुरानी बातो को मन में दफ़न कर एक नया जीवन शुरू करने के लिए मेरे उपर दबाब बनाया और इन्ही हालातो में मैं अतीत को मन में छुपाये सागर के जीवन में आ गयी। मशीनी जीवन जीते देखकर भी सागर ने कभी मुझसे कोई सवाल नहीं किया। मैं भी प्रत्यक्ष में लगभग सब कुछ भूलने की कोशश कर रही थी। हाँ ! बरसात को नही भूल पा रही थी। जब जब पानी बरसता घंटो भीगती रहती। सागर अक्सर खड़ा देखता रहता क्यूंकि उसे बारिश पसंद नही थी लेकिन उसने मुझे कभी रोकने की कोशिश नहीं की।………
“क्यूँ, क्या वो जानता था हमारे बारे में ?” प्रश्न फिर मेरे सामने आ खड़ा हुआ था।
शाम हो चली थी और हवा तेज़ होने लगी थी। अचानक ही बादलो ने अपना रुख बदल लिया। रिमझिम पानी बरसने लगा और साथ ही मैं ख़त को हाथों में लिए भीगने लगी। कब तक बरसे बादल और कब तक मैं भीगती रही, पता नहीं !
“वर्षा ! बारिश कब की बंद हो गयी है, अब चलो अन्दर ‘चेंज’ कर लो।” सागर घर लौट चुका था और मेरे सामने खड़ा था।
“सागर ! तुम्हे ये ख़त कहाँ से मिला ?” मैंने उसकी बात को ‘इग्नोर’ कर दिया और गीला ख़त उसके सामने कर दिया, देर से बेचैन करता प्रश्न जुबां पर था।
एक पल के लिये सागर खामोश खड़ा रहा और उसके बाद उसकी आँखें मेरे चेहरे पर आ टिकीं । “वर्षा ! ये ख़त राज ने खुद मुझे दिया था, आखिरी समय में। इस वादे के साथ कि मैं उसके प्यार को कभी बेसहारा नहीं होने दूंगा, कभी उसकी आँखों में आंसू नहीं आने दूंगा।”
“लेकिन तुमने आज तक कभी मुझे बताया क्यों नहीं ?” मैं अभी भी असमंजस में थी।
“वर्षा ! हर बारिश में, जब भी मैंने तुम्हे भीगते देखा है। मैंने हमेशा तुम्हारे अन्दर राज के प्यार को ज़िंदा देखा है और मैं अपनी ख़ुशी के लिये तुम्हारे उस प्यार को मारना नहीं चाहता था।” सागर की आँखों में झलकता दर्द उसकी बात की गहराई को पुख्ता कर रहा था।
मैं खामोश खड़ी अपने मन की गहराईयो में अपने मन का मंथन कर रही थी। सहसा बरसात फिर शुरू हो गयी। मैं जैसे सोते सोते एक गहरी नींद से जाग गयी थी। मैंने सागर को पकड़ा और लगभग उसे खींचते हुए अंदर ले आयीं।
“सागर ! मुझे अब राज की नहीं तुम्हारी जरूरत है और मैं जानती हूँ मेरे सागर को भीगना अच्छा नहीं लगता।” कहते हुए मैं सागर के सीने से लग गयी।
मेरा लिखा ख़त बरसात के पानी में, कही दूर बहता जा रहा था।………….
— विरेन्दर ‘वीर’ मेहता
बढ़िया कहानी !
सादर आभार आदरनीय विजय कुमार जी …..
बढ़िया कहानी !