पत्थर का शेर
पंडित लीलाधर मिश्र अपने पांच वर्षीय बेटे ओंकार के साथ मंदिर गए । एक विशाल प्रांगण के बीचोबीच भव्य मंदिर बना हुआ था ।
सीढियाँ चढ़कर मंदिर के दालान में एक शेर की पाषाण प्रतिमा दृष्टिगोचर हुयी । प्रतिमा बहुत ही सुन्दर और जीवंत शेर सा प्रतीत हो रही थी ।
पंडित लीलाधर ने आगे बढ़कर उस शेर की प्रतिमा के आगे शीश नवाया और ओंकार की तरफ देखा ।
ओंकार डरा सहमा सा उस शेर की प्रतिमा की तरफ देख रहा था । उसके मासूम चहरे पर डर का भाव देखकर पंडित लीलाधर सारा माजरा समझ गए ।
उसे समझाते हुए बोले ” बेटा ! तू इतना डर क्यों रहा है ? वह असली शेर थोड़े न है । वह तो एक शेर की मूर्ति ही है । उससे कैसा डर ? ”
ओंकार पंडित लीलाधर के पीछे पीछे मंदिर में प्रवेश कर गया । माताजी की प्रतिमा के आगे शीश झुका कर पंडित लीलाधर ने ओंकार की तरफ देखा ।
ओंकार माताजी के सामने निर्विकार सा खड़ा था । पंडितजी ने उसे समझाया ” बेटा ! यह जगत्जननी माता जी हैं । इन्हें हाथ जोड़कर नमस्कार करो । ”
ओंकार ने अनमने मन से माताजी की प्रतिमा को नमस्कार किया और मंदिर से बाहर आया ।
घर की तरफ बढ़ते हुए ओंकार के नन्हे से दिमाग में कुछ घुमड़ रहा था । आखिर पुछ ही बैठा ” पिताजी ! पत्थर के शेर से नहीं डरना चाहिए ये बात तो मैं समझ गया की वह नकली शेर था फिर पत्थर की देवी जिसे आपने हाथ जोड़ा वह असली कैसे ? ”
श्रद्धेय बहनजी ! उत्साहवर्धक व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आपका धन्यवाद ।
प्रिय राजकुमार भाई जी, बालमन की सहज जिज्ञासा की प्रस्तुति सहज लगी. एक नायाब और सार्थक रचना के लिए आभार.