वफ़ा के दायरे
“बख्श दे ख़ता, गर ख़ता की सजा है ये जिंदगी।
दुआ या बददुआ, अब सही नहीं जाती ये जिंदगी।”
खाने की ओर नजर भर देख उस्मान मियां ने खुदा की इबादत में हाथ ऊपर उठा दिए।
कभी जिंदगी को अपने अंदाज में जीने वाले उस्मान मियां अब पेट की आग भरने के लिए भी दुसरो की झूठन के मोहताज थे। आज भी किसी दावत की प्लेट में बचा खाना उठा लाये थे।
अभी दो कोर ही मुँह में गये थे कि ‘शैरी’ अपने ‘पिल्लो’ समेत बीच में मुँह मारने की कोशिश करने लगी और मियाँ अपनी प्लेट बचाने की कोशिश में लग गये। उसे दुत्कारना तो उनके वश में था नहीं क्योंकि एक यही थी जो अब तक साथ थी वर्ना तो सभी एक एक कर उन्हें छोड़ गए थे।
प्लेट खाली होती देख शैरी ने भौंकना शुरू कर दिया मानो अपने बच्चों की याद दिला रही हो। मियाँ घबरा कर और भी सिमटने लगे। शैरी की ‘भौं भौं’ अनायास ही उन्हें अतीत में खींच ले गयी।……
“नीच ! हमारी थाली के अन्न को छूने की जुर्रत की तूने ?” शोरशराबे की आवाज पर, मुट्ठी में सालन भरी रोटी लिए नौकर पर भौंकती शैरी को देख वो आपे से बाहर हो गए थे। “निकल जा अभी का अभी हवेली से।”
“हुजूर ! मेरी खता बख्श दे, अपने बच्चे की भूख नहीं देखी गयी मुझसे, बस इसलिए मैं……” कहता हुआ खैरु पैरो में गिर पड़ा था।
मगर पत्थर भी कहीं पिघलते है, मियाँ के मन का शैतान हँसने लगा था। “अच्छा ! जा बख्श दी खता, ले पकड़ ये बोतल, रात भर की खितमत तुझे माफ़ी और रोटी दोनों देगी।” कहते हुए मियाँ अपनी जश्न-ए-महफ़िल में खो गए थे।……..
शैरी की भौं भौं की तीखी आवाज ने उनको वापस वर्तमान में ला पटका। वो अपने बच्चों की भूख बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी और मियाँ अपना हिस्सा देना नहीं चाहते थे। एकाएक शैरी अपनी वफादारी भूल मियां के हाथ से अपना हिस्सा ले भाग खड़ी हुयी।
पल भर में हाथ में आये जख्म से रिसते लहू को देख मियाँ की नजरों के आगे अँधेरा छाने लगा और इन्ही अंधेरो में कही दूर से आती खैरु की आवाज उन्हें बेचैन करने लगी। “हुजूर पेट की आग ऊंच नीच और वफ़ा के दायरे नहीं देखती अब चाहे वो जानवर हो या फिर कोई इंसान।”
घिरते अँधेरे और लम्हा दर लम्हा उखड़ती साँसों के बीच उनके जहन में गूँजने लगी वही बात जिसने बरसो से उनका सकून छीना हुआ था। “हजूर…..हजूर…. खैरु का बच्चा रात भूख से मर गया, हजूर !”
(मौलिक व् अप्रकाशित)
विरेंदर ‘वीर’ मेहता