मिहनत से जो घबराए, रहता है अक्सर निर्धन!
क्या लेकर आए थे यहाँ पर, क्या लेकर तुम जाओगे,
जो कुछ है वो मिला यहीं से, यहीं छोड़कर जाओगे.
आज की चिंता अभी करो तुम, कल को कल पर ही छोड़ो
नदियाँ जो विपरीत दिशा में. उनकी धारा को मोड़ो
रह जाता जो खड़ा किनारे, डूबने से घबराता है,
रुका हुआ जैसे कोई राही, मंजिल कहाँ से पाता है.
शेर सपूत चुनते हैं राहें, रस्ता अपने आप बने
शायर शब्द सजाता जाता, कविता अपने आप बने
दुर्गम होते कई रास्ते, ठोकर लगती है पल पल,
पाहन तोड़ के राह बनाते, समझो उसी के हाथ में कल.
धरती माता जननी सबकी, वीर सपूत तनय उसके,
सस्य श्यामला पुलकित धरती, पूत सपूत अभय उसके
कर्मों का फल मिलना तय है, अपना कर्म करो मन से
फल देते हैं पौधे अक्सर, उर्वर भूमि पर सिंचन से.
मिहनत का फल मीठा होता, कहते आये हैं गुरुजन
मिहनत से जो घबराए, रहता है अक्सर निर्धन!
– जवाहर लाल सिंह, जमशेदपुर
हार्दिक आभार आदरणीय सिंघल साहब.
बढ़िया कविता !