ग़ज़ल : पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ
फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ
ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ
मुक़द्दस बूँद से जिसकी इबादत में वजू करती
पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ
परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को
बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ
भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली
तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ
तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो तोड़ा
सिसकते आईने के वो बता टुकड़े कहाँ रक्खूँ
हमारे वस्ल की रंगी फिज़ा इतना बता जाना
ख़जाँ की मार से पीले हुए पत्ते कहाँ रक्खूँ
तेरे लिक्खे हुए वो हर्फ़ मेरा मुँह चिढाते हैं
खतों के तेरे वो जलते हुए सफ्हे कहाँ रक्खूँ
— राजेश कुमारी ‘राज’
बहुत शानदार ग़ज़ल !
बहुत शानदार ग़ज़ल !
आपका तहे दिल से शुक्रिया आद० विजय कुमार जी |