अविद्या मनुष्य, समाज, देश और संसार सबकी प्रमुख व प्रबल शत्रु
ओ३म्
वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में कहा जाता है कि संसार के तीन प्रमुख शत्रु हैं। प्रथम अज्ञान व अविद्या, दूसरा अन्याय, शोषण वा अत्याचार आदि और तीसरा अभाव। अज्ञान व अविद्या दूर करना ब्राह्मण का दायित्व होता है और अन्याय व अभाव को दूर करना क्षत्रिय व वैश्य का कर्तव्य होता है। अज्ञान व अविद्या मनुष्य, समाज देश और संसार का प्रथम व प्रमुख शत्रु है। इसका नाश किये बिना मनुष्य व इतर समाज-देश-विश्व आदि के जीवन में सुख व शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। जो मनुष्य समाज अज्ञान व अविद्या से रहित पूर्ण ज्ञानवान होगा वह सर्वाधिक उन्नत व विकसित होगा। इसके लिए आप एक अनपढ़ व गंवार मनुष्य की एक सुशिक्षित व सुसंस्कारित मनुष्य के साथ तुलना कर देख सकते हैं तो पायेंगे कि शिक्षित व संस्कारित मनुष्य ही अच्छा व श्रेष्ठ होता है, अशिक्षित कदापि नहीं। शास्त्रों ने भी कहा कि संसार में ज्ञान से पवित्र और मूल्यवान पदार्थ और (धन, सम्पत्ति, सोना, चांदी, माणिक, मोती आदि) कुछ नहीं हैं। एक व्यक्ति को कहीं जाना है और वह रास्ता भूल जाता है। रास्ता भूल जाना व रास्ते का ज्ञान न होना अज्ञान होता है। वह दूसरों को अपना गन्तव्य बताता है और वहां पहुंचने का मार्ग पूछता है। ज्ञानी मनुष्य उसकी सहायता करते हुए उसका मार्गदर्शन करते हैं जिससे वह अपने लक्ष्य पर पहुंच जाता है। अतः ज्ञान व विद्या ही वह साधन है जिससे मनुष्य अपने उद्देश्य व लक्ष्य को जानकर उसको प्राप्त कर सकते हैं। अन्य कोई मार्ग लक्ष्य को जानने व प्राप्त करने का नहीं है। महर्षि दयानन्द का उदाहरण भी यहां लिया जा सकता है। उन्होंने चौदहवें वर्ष में शिवरात्रि का व्रत रखा था। रात्रि जागरण करते हुए उन्होंने शिव की मूर्ति पर चूहों को चढ़कर वहां भक्तों द्वारा चढ़ाये गये अन्न व नैवेद्य को खाते देखा तो उन्हें हैरानी होने के साथ उस मूर्ति के सच्चा शिव होने में शंका हुई। उन्होंने अपने पिता जो शिव के कट्टर भक्त व पौराणिक विद्वान थे, उन्हें निद्रा से उठाकर प्रश्न किये जिनका उत्तर उनके व किसी भी पण्डित व विद्वान के पास नहीं था। उन्हें स्पष्ट हो गया कि मूर्तिपूजा असत्य व अज्ञान से पृर्ण कृत्य है। इसके लिए उन्होंने घर का त्याग कर दिया और देश में भ्रमण कर सभी विद्वानों व योगियों की संगति कर ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि विषयक सत्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए अपूर्व पुरुषार्थ किया। ‘जहां चाह वहां राह’ की किंवदन्ति के अनुसार अन्त में उनकी ज्ञान प्राप्ति की कामना सिद्ध हुई और वह अपनी सभी शंकाओं व प्रश्नों के उत्तर प्राप्त कर सके। इसे कह सकते हैं कि उनका अज्ञान व अविद्या दूर हुई और वह सत्य विद्या व ज्ञान को प्राप्त होकर आप्तकाम व ज्ञानप्राप्ति रूपी सिद्धि को प्राप्त कर सके।
ज्ञान व विद्या पदार्थों के सत्य ज्ञान को कहते हैं। ज्ञान न होना व उल्टा ज्ञान होना अज्ञान व मिथ्या ज्ञान कहलाता है। महर्षि दयानन्द इसे इस प्रकार से कहा कि जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा जानना और मानना सत्य और इसके विपरीत जानना व मानना असत्य कहलाता है। वायु का गुण ‘‘स्पर्श” है। यह ठोस, द्रव व गैस में गैस श्रेणी का द्रव्य है। यह सूक्ष्म परमाणु व अणुओं से निर्मित होती है। वायु में आक्सीजन, नाईट्रोजन व हाइड्रोजन, कार्बन-डाइ-आक्साइड आदि अनेकानेक गैसें होती हैं। जिनके अपने अपने गुण व दोष होते हैं। इनको यथार्थ रूप में जानना ही सदज्ञान व ज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार से पृथिवी, जल, अग्नि व आकाश आदि पदार्थ हैं। जल का मुख्य गुण शीतलता, अग्नि का दाह व प्रकाश देना, आकाश का शब्द व अन्य पदार्थों को रहने का स्थान देना तथा पृथिवी का मुख्य गुण गन्ध है। इनको यथार्थ रूप में जानकर इनसे लाभ लेना ही ज्ञान व कर्तव्य है। जिस व्यक्ति को सभी प्रकार का ज्ञान होता है वह इन सब पदार्थों से लाभ प्राप्त करता है और जिसको ज्ञान नहीं होता है वह अपनी तो हानि करता ही है साथ ही अपने समाज की भी हानि करता है। अतः मनुष्य को ज्ञान प्राप्त करने में सदा सर्वदा सतर्क एवं प्रयत्नशील रहना चाहिये। घोर अज्ञानी की संज्ञा मृतक व गधे के समान कही जाती है। इसी कारण वेदों व सभी शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान व यथार्थवेत्ता महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना कर उसके नियमों में प्रावधान किया किया कि ‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।‘ उनका बनाया यह नियम संसार में सर्वत्र प्रतिष्ठा को प्राप्त है। कोई भी बुद्धिमान व ज्ञानी मनुष्य इस नियम का विरोधी नहीं है।
ज्ञान व विद्या की बात कर रहे हैं तो स्वयं व अन्यों को सभी विषयों का ज्ञान विद्या से ही होता है। मैं कौन हूं?, यह संसार क्या है, किससे, कैसे व कब बना, कौन इसका संचालक व पालनकर्ता है, हमारे जन्म व मृत्यु का कारण क्या है?, मृत्यु के बाद हमारा क्या होगा, क्या यह सृष्टि सदैव बनी रहेगी या कभी नाश को भी प्राप्त होगी?, ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर विद्या से प्राप्त होते हैं। जिनको इन सभी प्रश्नों के उत्तर ज्ञात न हो, जानिये कि वह अविद्या से ग्रसित व अपूर्ण विद्वान हैं। ऐसे लोगों को अपनी अविद्या दूर करने के लिए ज्ञानी व विद्वान गुरुओं की तलाश करनी चाहिये। उन्हीं से उनकी इन विषयों व अन्य सभी विषयों की अविद्या दूर हो सकती है।
विगत दो तीन शताब्दियों में विश्व में ज्ञान व विज्ञान ने बहुत उन्नति की है। भौतिक जगत की बात करें तो वैज्ञानिकों ने परमाणु व अणु से लेकर सभी भौतिक पदार्थों अर्थात् सभी तत्वों व रसायन शास्त्र से बने हुए व बनने वाले पदार्थों को अधिकांशतः जान लिया है परन्तु आज भी वह सृष्टिकर्ता ईश्वर, जीवात्मा, जैविक सृष्टि, सृष्टि का उद्देश्य, मनुष्य व अन्य प्राणियों के जीवन का उद्देश्य जैसे प्रश्नों के समाधान नहीं ढूंढ पाया है। अत: संसार में जो उन्नति व प्रगति हुई है वह सर्वांगीण व पूर्ण नहीं अपितु एकांगी व अपूर्ण है। जिन प्रश्नों के उत्तर विज्ञान नहीं दे पा रहा है उन सभी प्रश्नों के उत्तर व उनका समाधान वेद और वैदिक साहित्य से हो जाता है। इसमें बाधक मत-मतान्तर, उनकी अविद्या और असत्य मान्यतायें व लोगों के स्वार्थ आदि हैं। आज के विज्ञान के युग में सबसे अधिक आश्चर्य में डालने वाली बात मत-मतान्तरों के अनुयायियों का व्यवहार है। ऐसा लगता है कि वह सत्य को जानना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें पता है कि उनके मतों के भवन बिना सत्य की नींव के खड़े किये गये हैं। यदि वह सत्यासत्य की चर्चा करेंगे तो उन्हें अपनी असत्य बातों को त्यागना होगा जिससे उनका मत ही अप्रसांगिक होकर समाप्त हो सकता है। महर्षि दयानन्द मत-मतान्तरों की सोच व यथार्थ स्थिति को अच्छी तरह से जानते थे। इसी लिए उन्होंने के एक नियम बनाया कि ‘सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’ इस नियम को सभी मत व वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं परन्तु कोई मत दूसरों द्वारा इंगित व निर्देशित करने पर अपनी असत्य मान्यताओं व न्यूनताओं पर विचार कर दूसरों का समाधान नहीं करता है। असत्य मान्यतायें और सिद्धान्त क्योंकि सभी मतों में हैं अतः कोई किसी को अच्छा या बुरा भी नहीं कहता। यह साहस केवल महर्षि दयानन्द ने किया था जिस कारण सभी लोग उनके प्राणों के शत्रु बन गये थे और बड़ी चतुराई से उनको मृत्यु का ग्रास बना डाला। स्वामी दयानन्द सत्य के पुजारी थे। इसी कारण उन्होंने अपने पिता व पूर्वजों के पौराणिक-सनातनी मत की वेद प्रमाणों, तर्क व युक्तियों से आलोचना व खण्डन किया व दूसरों के साथ भी पक्षपात न कर ऐसा ही किया। अविद्या ही संसार में एक से अधिक मत होने का कारण है। सभी मत सत्य और असत्य के मिश्रण हैं, किसी में कुछ कम व किसी में अधिक अविद्या है। सभी जानते हैं कि सत्य एक है अर्थात् Truth is only one परन्तु फिर भी एकमत नही होते। उनके एक मत न होने से इनके अनुयायी व मताचार्य एक दूसरों से लड़ते-झगड़ते रहते हैं जिससे संसार में सर्वत्र अशान्ति है। भारत में तो इतने गुरु, उनकी अलग अलग शिक्षायें व मत-मतान्तर हैं कि उनकी गणना भी नहीं की जा सकती। इस कारण लोगों में परस्पर एकता होने के स्थान पर आपसी फूट विद्यमान है जो लोगों में दुःख व अशान्ति का कारण है। अविद्या के कारण सभी मनुष्य अनावश्यक पूजा पाठ व अन्ध परम्पराओं का शिकार होकर अपना समय व धन बर्बाद करते हैं और इसके बदले में अशुभ कर्म करने के कारण कालान्तर में दुःखों केे भोक्ता बनते हैं। मूर्तिपूजा, अवतारवाद, फलित ज्योतिष, सामाजिक असमानता, जन्मना जातिवाद, बेमेल विवाह, बहुपत्नी प्रथा, मांसाहार, जुआं, यथार्थ ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना आदि का ज्ञान न होना अविद्या के कारण ही हो रहे है। इस पर भी सभी अज्ञानी-अविद्याग्रस्त लोग व मत अपने अपने मत व सम्प्रदायों की मान्यताओं को दूसरे से अधिक सत्य, उन्नत व श्रेष्ठ मानते हैं। यथार्थ स्थिति यह है कि ईश्वर, जीवात्मा, प्रकृति व मनुष्य की जीवनचर्या की दृष्टि से वैदिक मत व मान्यतायें ही सत्य, उचित व लाभकारी हैं। अतः ऐसी स्थिति में विद्वानों को सत्य के ग्रहण व असत्य के त्याग के सिद्धान्त को सामने रखकर अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि के लिए प्रयत्न करने चाहिये और सभी मतों को नजरन्दाज कर देना चाहिये जिससे की वह सत्य को जान व मान सके।
यह सुनिश्चित है कि विश्व से सभी दुःखों की निवृत्ति तभी होगी जब संसार से असत्य, अविद्या व अज्ञान को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जायेगा। ऐसा होने पर ही प्रत्येक मनुष्य सुख व शान्ति का जीवन व्यतीत कर अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होगा। हम यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि धार्मिक मान्यताओं व परम्पराओं की दृष्टि से सत्य-असत्य के निर्णय में सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ विशेष लाभप्रद है। इसे अविद्या दूर करने के लिए साधन रूप में स्वीकार किया जा सकता है। अपने निजी जीवन, समाज, देश व विश्व में सुख व शान्ति की स्थापना के लिए सत्य को ग्रहण और असत्य को त्यागने के मार्ग पर चल कर अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी ही होगी जो केवल वेदों के ज्ञान व अध्ययन तथा आचरण से ही प्राप्त होगी। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। इति शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य