व्यंग्य : मच्छर तंत्र
पिछले दिनों अपना पड़ोसी देश मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया गया है। जैसे हर नेक पड़ोसी के दिल में अपने पड़ोसी की अच्छी खबर को सुनकर आग लगती है वैसे ही इस खबर को सुनकर हमारा भी कलेजा धधकने लगा है। देशवासी सोच रहे हैं कि एक छोटा सा देश इतना बड़ा काम कर गया और हमारा इतना बड़ा देश ये छोटा सा काम क्यों नहीं कर पाया? असल में देश तो अपना भी मलेरिया अथवा अन्य मच्छर जनित रोगों से अब तक मुक्त हो जाता लेकिन हमारे देश के सफेदपोश मच्छरों ने ऐसा होने ही नहीं दिया। वे तो आपस में लड़ने-झगड़ने और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में भी ही व्यस्त रहे। उनकी व्यस्तता का लाभ पारंपरिक मच्छरों ने उठाया और जनता को अपने जहरीले डंक से इस दुनिया के मोह-माया और दुखों से मुक्ति दिलवाने में योगदान देते रहे। जनता तड़पते-तड़पते मरने को विवश होती रही, लेकिन सफेद्फोश मच्छरों को कोई फर्क नहीं पड़ा। फर्क पड़ता भी क्यों? सफेदपोश मच्छरों ने आंकड़ा नामक शस्त्र का ऐसा प्रयोग किया कि उनपर लगनेवाले सारे आरोप इस शस्त्र के सामने पल भर में धराशाही हो गए। आंकड़ा शस्त्र धारण किए हुए योद्धाओं ने ऐसा चक्रव्यूह रचा कि मच्छर जनित बीमारियों से हुईं मौतों की असली संख्या उस चक्रव्यूह से निकलकर कभी बाहर आ ही न सकी। भूले से किसी मौत की सच्चाई सामने भी आ गई तो जवाब में झट से आश्वासन का झुनझुना पकड़ा दिया गया। जनता बेचारी उस झुनझुने में उलझकर रह गई और मच्छरों ने निर्भय होकर फिर से अपने आदमी मारू मिशन के लिए कमर कस ली। मच्छरों को भी ये मालूम था कि अगर वो लाचार मानवों का खून चूसकर उनके शरीर में डेंगू, मलेरिया, चिकनगुनिया अथवा जीका इत्यादि बीमारियों का जहर भर रहे थे तो उसी प्रकार सफेदपोश मच्छरों ने भी देश का खून चूस-चूसकर उस ख़ून को स्विस बैंकों को सप्लाई कर बदले में गरीबी और बेकारी जैसी बीमारियों का जहर उसके शरीर में भर दिया था। हमेशा की तरह इस बार भी कागजों पर अब भी जमकर फोगिंग हो रही है और मच्छर जनित रोगों से लड़ने की विभिन्न योजनाएँ बन रही हैं। सफेदपोश मच्छर पारंपरिक मच्छरों के साथ मिलकर मच्छर राग गा रहे हैं और इस मच्छर राग के शोर में मरती जनता की करुण पुकार किसी को सुनाई नहीं दे पा रही है। कभी-कभी लगता है कि जैसे हम लोकतंत्र में नहीं बल्कि मच्छर तंत्र में जी रहे हैं।
लेखक : सुमित प्रताप सिंह
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