कविता – कुछ तो इंतज़ार किया होता
कुछ तो इंतज़ार किया होता तुमने,
गिरती,बरसती बूँदों को पत्थरों
पर,रोकने से पहले…….
बेघर ही कर डाला,इन सूखी ,
तपती बूँदों को……
पत्थर के वज़ूद में उभरने लगी
हैं, सलवटें लिये गहरी ,उथली दरारें
जो अक्स है,मेरी हथेली में खिंची गयी
इंतज़ार की लकीर का,
कुछ तो बरसा ही होगा आज,
तुम्हारी बेरुखी से
जो भिगो गया,उन तमाम पीतवर्णी
पत्रों को,छिपा डाले थे,खिजां
होती दिल की जमीं में
ताकते अपने सूखे फलक को,
पत्थरों के बीच ही उग आए है,
सपनों के नुकीले कैक्टस…..
सुनकर ‘चुप’ रहने का फरमान,
दम्भी बादलों से,करा ही डाला
थमे समय ने,अहसास अपने,
जेबकतरें होने का….
पत्थर के ‘चुप’रहने में छिपी
एक चीत्कार सुनी है….
” शापित नहीं होना है, मुझे,
तुम्हारी मिथ्या दम्भ से,
अहिल्या बन नहीं सकती,
राम भी तो नहीं है,यहाँ
मुक्ति के लिए ”
अब तो क्षितिज में उभर
आया, इंद्रधनुष भी,लुटेरा
रंगरेज ही लगता है,
कुछ तो इन्तजार किया होता….
— मंजुला बिष्ट