कविता

कविता – सलमा

सलमा…. जी हाँ, यही नाम था,उसका ।जब पैदा हुई होगी, तो  अम्मी और अब्बू ने बड़े अरमानों से उसे यह नाम दिया होगा ।
24 जून को ,बिहार में,उसपर एसिड अटैक हुआ,क्यों? बताने की जरूरत नही है,लगभग तीन महीने की शारीरिक और  मानसिक पीड़ा से गुजरने के बाद,वह आज अपनी लड़ाई हार गई…..क्या वाकई वह हारी ….मुझे लगता है कि हम हार रहे है …इस पाशविक  सोच के सामने…आइये.मिलकर अनेक  लक्ष्मी और सलमा को बचाये ,आशीष जी द्वारा चलाई मुहीम का हिस्सा बने व अलख जलाये रखने में उनकी मदद करें ।
इस दम्भ के भेंट चढ़ी, एक मासूम की असमय मौत पर ,मेरी श्रधांजलि..  salma-1
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आओगे,क्या एक बार मुझसे मिलने  तुम….सिर्फ एक बार…..मेरे स्वयंम्भ् न्यायाधीश ….
यही तो हो तुम …. प्रस्ताव, इल्जाम, दलील, जिरह, और
अंत में फैसला भी तुम्हारा ही

क्या हुआ ? डर गये मुझसे ,क्यों?अपनी जान,मुहब्बत,जूनून से …और भी न जाने
कितनी अमर प्रेम कथाएं वांची थी,तुमने

आओ,देखो,यह अकल्पनीय रूप मेरा,
सच,ऐतिहासिक चित्र की तरह लगती
हूँ,किसी अबोध को मैं,
बढ़ाती सामान्य ज्ञान उसका,देती आभास
किसी  ‘इजिप्शियन  ममी ‘ का,

करती हूँ गिनती,अपनी इन  लिजलिजी अंगुलियों पर ख्वाबों के गुज़रे सालों की,
क्या विचरते थे,किसी श्मशान में,ले मेरा
हाथ थाम,अपने ख्वाबों में,अक्सर तुम

सच ही था तुम्हारा दावा  कि प्रेम अग्नि
में जलते हो तुम,मेरे लिए
तभी तो उड़ेला है यह….अपनी चाहत की अग्नि का सैलाब ,मुझ निरीह पर तुमने ,
जला ही डाला न मेरे ‘इंकार ‘ को अपने
अहम की झूठे ज्वालामुखी से।

कसूर तो बता दो मेरा…तुम्हारी जिद और
मेरी हद के बीच, पिसती  मेरी रूह की आज़ादी माँगी थी ,याचक बनकर….तुमने
तो रंग डाला अपनी तपते प्रेम रंग में,ऐसा
कि, न चढ़े कोई  दूजा रंग मेरे पर

तुम सचमुच ही, धर्मनिरपेक्ष हो,तभी तो  नहीं देखते हो किसी मासूम का धर्म….
लक्ष्मी,सलमा……सब एक है उड़ेल देते
हो अपना दम्भ,बिन देखे उनका धर्म।

और हाँ,अपने पालकों को भी साथ  लाना,
पूछूँगी एक सवाल उनसे….”क्या कभी तुम्हे
किसी नारी के ‘इंकार’ का सम्मान करना सिखाया था उन्होंने ???”
मेरी पिघली आँखें,लोथड़ों में तब्दील चेहरा
सड़ांध को दबाती गंध,को देखना जरूर।

मैं ,तोड़ रूढ़ियाँ ,ले नियंत्रित आज़ादी,बन बैठी
‘इव ‘से आधुनिक नारी….आह !!!तुम आज भी भटक ही रहे हो,अपनी आदिम अवस्था के सोच के जंगल में।
मेरा दर्द भी तुमने  कैद किया है,मेरी चुप में,
जिस घुटन,दर्द से मैं गुजर रही हूँ,काश तुम भी गुज़रो,

आना जरूर,मेरे पीछे श्मशान तक,देखना
मेरे जलते जिस्म की तड़फ को, देना जवाब
क्या प्रेम का अर्थ सिर्फ  इकरार है, मैं सिर्फ एक पसंदीदा चेहरा नही थी, मैं एक ख्वाब थी, अपनों का, जिसे एक इंकार ने जला डाला, मरने से पहले…….
आओगे क्या?….

मंजुला बिष्ट

बीए, बीएड होम मेकर, उदयपुर, राजस्थान