लघुकथा – अंतर्मन की औरत
सर्दियों की एक सूनी सुरमई साँझ थी वह,रश्मि पीहर गई हुई थी,जब माँ ने रजत के सामने अपने मन की बात रखी,” रजत!बेटा! रश्मि हर बात में इक्कीस है तुमसे… सुंदर है,तुमसे ज़यादा पढ़ी-लिखी है, ऊँचे ओहदे पर है,ज़्यादा कमाती है और दिल तो देखो लड़की का कि अपनी कंपनी से लोन ले कर गाड़ी ली और तुम्हारे हवाले कर दी और खुद बस से दफ्तर जाती है औुर सबसे बड़ी बात कि मेरी खूब इज़्ज़त करती है,साथ ही कामों में हाथ भी बटाती है, फिर क्यों तुम हर वक्त उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते हो?”
” माँ! रजत मुस्कुराया,” दरअसल मैं उसे जताता रहता हूँ कि दफ्तर में भले ही वह अफसर है पर घर का राजा तो मैं ही हूँ और माँ हमने उसे खींच कर नहीं रखा न तो कल को वह हमारे सिर पर चढ़ कर नाचेगी।”
” गलत…एकदम गलत! बड़ी घटिया सोच है तुम्हारी…बिल्कुल अपने पापा की तरह।वह भी अपनी आखिरी साँस तक मुझे बेवजह सताते रहे और अफसोस की बात तो यह है कि तुम्हारी दादी भी उनका साथ देती रहीं,” कह कर माँ खामोश हो गईं,फिर पल भर के बाद एक लंबी ठंडी साँस ले कर बोलीं,” तुम सुधर जाओ बेटे! रश्मि आज लक्ष्मी और सरस्वती का रूप है पर तुम्हारी यही हरकतें रहीं न तो उसे चंडी बनते देर नहीं लगेगी और तब मैं उसका साथ दूंगी,तुम्हारा नहीं।”
” क्यों? क्यों देंगी आप उसका साथ? आप मेरी माँ हैं या उसकी?'” रजत ने तल्ख़ स्वर में कहा तो जैसे साक्षात दुर्गा ही उतर आई माँ के भीतर ” बेशक…बेशक मैं तुम्हारी माँ हूँ पर अगर मैंने रश्मि के साथ अन्याय होने दिया तो मेरे अंतर्मन की औरत मुझे कभी माफ नहीं करेगी…ठीक वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी दादी को कभी माफ नहीं किया।”
— कमल कपूर