कहानी : भागभरी
सुहाग-पर्व से एक दिन पूर्व दोपहर को मेरे ब्लॉक की छोटी-बड़ी उम्र की लगभग सारी महिलाएँ सजी-धजीं मेरे बड़े से आँगन में आ जुटी थीं और आतुर मन से इंतज़ार कर रही थीं उसका … जो साल में सिर्फ एक बार आती थी,करवे,रंगारंग काँच की चूड़ियों और सुहाग की अन्य चीज़ों की भरी हुई रेहड़ी के साथ और हँसी-ठिठोली और सुहाग-गीत गाते हुए सबको चूड़ियाँ पहनाती … आशीर्वचनों से गूँथ कर। ठसक भी निराली होती उसकी… चटक लाल,पीले, जामुनी या हरे रंग का घाघरा-ओढ़नी, हाथों में खनकती ढेर चूड़ियाँ, माथे पर दमकती चवन्नी के आकार की सुर्ख बिन्दिया और मांग में लबालब सिंदूर सजाए वह पायल छनकाते मुस्कुराती हुई आती और घंटे-दो घंटे में रेहड़ी खाली कर हम सबको असीसती हुई लौट जाती। नाम भी तो कितना मीठा था उसका कि जुबान पर धरते ही जैसे खांड-मिश्री घुल जाए… भागभरी… जी हाँ, भागभरी।यह भागभरी आई क्यों नहीं अब तक? हम इंतज़ार कर -कर हारने को ही थे कि… ” भागभरी आ गई… भागभरी आ गई,” गली में खेलते बच्चों ने शोर मचाया और अगले ही पल वह सामने खड़ी थी लेकिन यह क्या…? यह हमारी वह भागभरी नहीं कोई दूसरी ही स्त्री थी जैसे। उसके माथे पर बिंदिया का सूरज नहीं चमक रहा था, मांग सिंदूर से और कलाइयाँ चूड़ियों से खाली थीं तथा देह पर मटमैली सी सफेद साड़ी थी और होठों पर मुर्झाए पीले गुलाब -सी मुस्कान…. जैसे जबरन ओढ़ रखी हो।जी धक्क से रह गया मेरा ।
” ये सब कब और कैसे हुआ भागभरी?” तड़प कर पूछा मैंने तो वह एक गहरी ठंडी साँस ले कर बोली,” जाने दो ना बिटिया !सुहाग-भाग के दिन ठैरे। अभाग की बात काहे सुनावें?अपने दुखड़े काहे रोवें हम? चलो आओ चूड़ी पहरावें।”
चूड़ियाँ पहनी पर सिर्फ मैंने और बाकी किसी ने भी न चूड़ियाँ पहनीं और न करवे या कोई और सामान खरीदा उससे और घोर निराशा की प्रतिमा बनी, ” तुम सबका सौहाग -भाग बना रहे छोरियों,” का सामूहिक आशीष दे कर वह चली गई तो सबने मुझे आड़े हाथों लिया।
” पगला गई है क्या मधु, जो उसके हाथों आज के दिन चूड़ियाँ पहन बैठी? ऐसा भी क्या लिहाज़ कि अपने शगुन-अपशगुन की भी ना सोची तुमनें?” कुसुम जीजी ने कहा।
” अरे ! जिसका खुद का सुहाग नहीं रहा वह क्या हमें….”
” बस जया , बस करो। तुम्हारे ससुर जी भी तो नहीं हैं,फिर क्यों अपनी सासू माँ को उपवास पूज कर बायना देती हो तुम? और कुसुम जीजी! आपके पापा नहीं हैं न? फिर क्यों माँ से सरगी का सामान लेती हैं आप? अपनी संकीर्ण मानसिकता से बाहर आएँ आप लोग,”मैंने जया की बात पर कैंची चला कर ,करहाते स्वर में कहा तो वहाँ मौन पसर गया और कुछ ही पलों में मेरा आँगन खाली हो गया। मेरी सब तथाकथित आधुनिक सखियाँ चली गईं …मेरा मन अवसादित और व्यथित करके।
साँझ को पतिेदेव आए तो मेरी गहरी उदासी को पढ़ कर अतिरिक्त नेह से पूछा उन्होंने,” आज मेरे चाँद का फूल सा मुखड़ा मुर्झाया हुआ क्यों है? करवाचौथ का उपवास तो कल है… भूखा तो कल रहना है न तुम्हें?”
मैंने छलकते नयनों के साथ उन्हें पूरा किस्सा सुनाया तो मुझे बांहों में भर कर स्निग्ध स्वर में बोले वह,” तुम लाख चाहने पर भी किसीकी मानसिकता नहीं बदल सकती मधु ! पर अपनी मनोदशा यानी मूड बदल सकती हो। चलो बाजारों की रौनक देख कर आते हैं और तुम्हारे लिये एक अच्छी सी साड़ी भी खरीदनी है मुझे।”
हम न किसी मॉल पर गये और न ही किसी नये बड़े आलीशान स्चोर में बल्कि शहर के सबसे पुराने बाज़ार छोटी बजरिया जा पहुँचे, जहाँ घूम -फिर कर मुझे सदा अपने बचपन वाले रौनक भरे बाज़ार याद आते हैं।
मन हरसिंगार सा खिल -महक उठा और दोपहर वाली घटना के कुप्रभाव से मुक्त हो गया कि तभी मेरे कंधे पर हाथ धरते हुए पतिदेव ने एक दिशा की ओर संकेत करते हुए कहा,” वो देखो मधु! कितना जमावड़ा है वहाँ। चलो चल कर देखते हैं कि माज़रा क्या है।”
जन-सैलाब को चीरते हुए हम आगे तक पहुँच गये तो देखा…जमीन पर बिछी एक बड़ी-सी चटाई पर करवे, काँच की चूड़ियाँ,बिन्दियों के पत्ते और सुहाग का अन्य सामान करीने से सजा धरा था और…. और उसकी परली ओर … लाल पाड़ की पीली साड़ी पहने , माथे पर चाँद सी टिकुली टांके और भर-भर धानी -सुनहरी चूड़ियाँ पहने पान चुबलाती एक स्त्री , सुहागनों को हंस-हंस कर चूड़ियाँ पहना रही थी। एक सुखद आश्चर्य था यह मेरी आँखों के सामने क्योंकि…क्योंकि वह स्त्री कोई और नही मेरी प्यारी भागभरी थी… पूर्ण आत्मविश्वास से भरी। सहसा उसकी नज़र मुझ पर पड़ी तो वह कांप उठी और उसके चेहरे पर जैसे हल्दी पुत गई। उसने हाथ जोड़ कर दयनीय प्रार्थना भरी दृष्टि से मुझे देखा तो उस मौन प्रार्थना ,’ किसी को मेरा सच न बताना बिटिया ,’ को बांच कर मैंने भरपूर संतुष्टि से जड़ी मुस्कान उसके हवाले करते हुए आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठा दिये।
— कमल कपूर