साक्षात्कार : विपरीत परिस्थितियाँ ही लिखने को विवश करती हैं- कान्ता राय
कम समय में लघुकथा की सीढियाँ चढ़ने वाली जांबाज लेखिका- कांता रॉय का ओमप्रकाश क्षत्रिय द्वारा लिया गया बेबाक साक्षात्कार
यदि व्यक्ति बेबाक है तो विवाद सदा उस के पीछे लगे रहते है. इसे यूँ कहे कि सीखनेसिखाने की लालसा में व्यक्ति आत्मविश्वास के साथ कुछ भी व्यक्त कर देता है जो उसे सही लगता है. तब विवाद का जन्म होता है. मगर जब सोचसमझ के साथ कुछ कहा जाए तो वह स्वयं के साथसाथ दूसरों को भी सही दिशा देता है.
यह तो मेरे निजी विचार है. देखते है कि ‘’घाट पर ठहराव कहाँ’’ से लघुकथा के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने वाली लघुकथाकारा कांता रॉय क्या कहती है. उन की गई बातचीत में क्याकुछ निकल कर आता है. ये मेरे विचारों का समर्थन करता है या विरोध ? उन्हीं की जबानी सुनते है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय– लघुकथा लिखने के लिए आप सब से पहले क्या-क्या करती हैं ? उन से सब से पहला सवाल यही किया .
कान्ता रॉय– वैसे तो मन में हर वक्त लघुकथाओं के संदर्भों को ही गुनगुनाती रहती हूँ . इसी कारण कई प्लॉट मेरे मन में हमेशा घुमते रहते हैं. प्रतिदिन एक लघुकथा पर काम करना- मेरी आदत में शामिल है. ( यह कहते वक्त वे हलके से मुस्करा देती हैं.) अगर मै किसी दिन उलझ जाऊं और लघुकथा में कोई प्रयास ना कर पाऊँ या लिख नहीं पाऊँ तो ऐसा लगता है कि आज का दिन मैं ने जिया ही नहीं है. सबसे पहले कथ्य को सोचती हूँ ? किस बात को लघुकथा में उभारना है ? इस के लिये कौनसा क्षण विशेष सही रहेगा ? ऐसा क्षण किन परिस्थितियों में बनता है ? आदि बातें सोचती रहती हूँ. वह क्षणविशेष या विसंगति सामाजिक हो या पारिवारिक, राजनीतिक या स्त्री विमर्श ,मै कल्पना के सहारे पहले आँख बंद कर के उस क्षण विशेष को घटते हुए महसूस करती हूँ. पात्रों को जीने की कोशिश करती हूँ. देर तक इस अवस्था में रहने के पश्चात अचानक एक पीड़ा महसूस होती है. मन विचलित हो उठता है। एक तरह से यह मेरा एकाग्रता में डूबा हुआ ध्यान का पल होता है . इसी विचलन को , इसी पीड़ा को शब्दों की धार देकर लिख डालती हूँ. ( वे एक सास में अपनी बात कह जाती है. फिर कुछ रुक कर कहती है.)
हमेशा से ही यह मेरा स्वभाव रहा है कि मै गुस्से में या हताशा में तीव्र लेखन करती हुई. स्वयं को इस प्रक्रिया में बहुत ही सहज पाती हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय- जब सामान्य होती है तब ?
कांता रॉय- जब नॉर्मल रहती हूँ तो मेरे अंदर का लेखक गायब रहता है. ऐसी अवस्था में ही लघुकथा लिखना नहीं होता है. यही बात मै कविता लेखन में भी महसूस करती हूँ. मेरी समस्त कविताओं में मेरी निजता छुपी हुई होती है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय– मान लीजिए कि इतना करने के बाद भी लिखने को कुछ नहीं मिल पा रहा है तब आप क्या करती हैं ? मैं ने अगला प्रश्न किया.
कान्ता रॉय — मेरे पास हमेशा लिखने को कुछनाकुछ विषय रहता ही है. (वे पूरे आत्मविश्वास के साथ कहती है.) वक्त की कमी से जरुर जूझना पड़ता है. आखिर कामकाजी महिला हूँ. इस के बावजूद भी मै पढ़ती अधिक हूँ और लिखती कम हूँ. कहीं भी रहूँ अपने साथ में एक स्कूल बैग हमेशा साथ रखती हूँ जिस में पुस्तकालय से ईश्यू करवाई किताबों के अलावा कुछ गद्य साहित्य की किताबें व पत्रिकाएँ वगैरह रहती है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय—यह प्रक्रिया जिस का वर्णन आप ने किया है वह किस की देन है ? या यूँ कहे कि आप किस का अनुसरण कर रहे हैं ?
कान्ता रॉय–मेरी रचना-प्रक्रिया मेरे अनुभवों की देन है. या इस को यूँ कहूँ तो बेहतर होगा कि पूज्यनीय योगराज प्रभाकर सरजी के सानिध्य में लिखते हुए सबकुछ सीखी हूँ. या मेरी कच्ची रचनाओं पर उन की पैनी नजर होती है. जिस पर वे बेबाक प्रतिक्रिया देते है- यह उसी डर की देन है. शिल्प व लेखन शैली मेरी मौलिक है. मै किसी दुसरे का अनुसरण नहीं करती हूँ . किसी का भी नहीं . स्वंय को किसी से प्रभावित ना कर लूँ अनजाने में, इस डर के कारण किसी एक रचनाकार की एक पुस्तक ही एक समय में पढ़ती हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय—तब तो आप के पात्र उन पुस्तकों से प्रभावित होते होंगे ? ( कुछ रुक कर यह भी पूछ लिया ) आप अपनी लघुकथा में पात्र के चयन के लिए क्या करती हैं ?
कान्ता रॉय— मैं ने पहले कहा हैं कि पहले मै स्वंय उस पात्र को और परिस्थितियों को जीती हूँ. तब स्वयं जिया हुआ पात्र व पल, स्वंय ही शब्दों में आकार ग्रहण कर लेता है. ( वे हौले से मुस्करा देती है.) यहाँ पात्रों का चयन मैं नहीं करती हूँ. उन का चयन तो हो जाता है स्वतः ही.
ओमप्रकाश क्षत्रिय—अपनी लघुकथा की शब्दसंख्या और कसावट के बारे में कुछ बताइए ?
कान्ता रॉय — हाँ ,यह प्रश्न आप ने एकदम सटीक पूछा है. पात्रों को महसूस करते हुए जो मन में भाव आते हैं वो लिख लिया करती हूँ. फिर अपने पतिदेवजी अर्थात सत्यजीतजी को पढ़ने के लिये कहती हूँ. जहाँ कहीं उन्हें अटपटा लगता है वे मुझे टोक दिया करते हैं. जब सही होती हैं तो वे कह देते हैं कि कथा सही है.
फिर मै इस को तराशने का काम करती हूँ. बतौर एक पाठक मै उस कथा पर मनन करती हूँ. वाक्यों में बातों के दोहराव को , व्याकरण की अशुद्धियों को और उन सब चीजों को देखती हूँ जो मुझे परेशान करती है. उन सब को दुरूस्त करने की कोशिश करती हूँ.
शब्दों की संख्याओं पर अब मेरा ध्यान नहीं होता है. यह सब लेखन के शुरूआत के दिनों में सोचती थी. अब नहीं सोचती हूँ. अब मै शिल्प पर, शैली पर और कथ्य के उभर कर आने पर और लेखन के उद्देश्य के सार्थक होने पर ही एकाग्रचित्त हो कर विचार करती हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय— लघुकथा लिखने का कौनसा तरीक़ा है जिस का आप अनुसरण करती हैं ?
कान्ता रॉय — नहीं, कोई विशेष तरीका नहीं है. हर कथानक का अपना आकार ग्रहण कर लेता है. हरेक कथानक का अपना अलग परिवेश होता है. कथानक का परिवेश ही उसको उस का गठन करता है. फिर भी इतना जरूर है कि मुझे मिश्रित शैली की लघुकथायें अच्छी लगती है. मै पूज्यनीय योगराज प्रभाकर सरजी की “शिल्पशैली” जैसी लघुकथा अपने जीवन में लिखने की आकांक्षा रखती हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय– आप को अपनी पहचान “घाट पर ठहराव कहाँ ” से मिली. इस की प्रेरणा आप को कहाँ और कैसे प्राप्त हुई ?
कान्ता रॉय – दरअसल मै पुस्तक प्रकाशित करने के लिये उस वक्त तैयार नहीं थी. यह तब की बात है. हालांकि मित्रजनों का दबाब था कि आपकी पुस्तक अब आना चाहिए. इन्हीं दुविधाओं के दौर में, एक दिन समय साक्ष्य- देहरादून से आदरणीय प्रवीण कुमार भट्टजी का फोन आया, “मेम ! हम आप की पुस्तक प्रकाशित करना चाहते है.” सुन कर ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा.
बस इसी एक फोन की वजह से पुस्तक प्रकाशित हुई हैं.
( यह सुन कर मन में प्रश्न उठा कि इन का माहौल कैसा है. यह जानने के लिए मन में एक प्रश्न आया और हम ने पूछ लिया.)
ओमप्रकाश क्षत्रिय– आप का पारिवारिक माहौल कैसा है ? यानि आप साहित्यिक परिवेश से तालूक रखती है ?
कान्ता रॉय — मेरा पारिवारिक माहौल बहुत शान्त है. इकलौती बहू होने के कारण बहुत स्नेहमयी वातावरण मिला है मुझे. मेरे जीवन का सब से सुखद एहसास यह है कि मेरी सास को मुझ में कभी कोई बुराई नजर ही नहीं आती है . है ना यह भी एक विसंगति .
यहाँ ससुराल में साहित्यिक माहौल बिलकुल नहीं है. साहित्यिक आचरण से सम्बंधित बातों को समझाने में परिवार के सदस्यों को कभी-कभी बहुत परेशान हो जाती हूँ क्यों कि वैश्वीकरण के दौर में आजकल हर काम को आय से जोड़ कर देखा जाता है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय – आप की लेखन की रूचि किसकिस विषय में है ?
कान्ता रॉय– लघुकथा को लिखते हुए, विधा संदर्भ में काम करते हुए मैं ऊर्जा से भर जाती हूँ. मेरी एक दुकान है जिस को मै पिछले १७ सालों से चला रही हूँ . दिन में १.३० से ले कर ऱात ९.३० बजे तक वहीं रहती हूँ. इसलिए काम का बोझ रहता है. लेकिन कितनी भी थकी क्यों ना होऊँ, लघुकथा पर चर्चा करते ही मेरी समस्त थकान मिट जाती है.
कविता में मेरी रूचि गहरी है. जरा भी भावुक हुई नहीं कि एक कविता लिख लेती हूँ.
एक बार मेरी कविता पढ़ते हुए आदरणीया मालती बसंतजी ने कहा था कि तुम अगर पद्य विधा में काम करती तो वहाँ भी उत्कृष्टता को साबित करोगी . पद्य साहित्य की लगभग सभी विधा मुझे आकर्षित करती है. जब भी लिखती हूँ उस में पूरा डूब कर पढ़तीलिखती हूँ लेकिन वक्त ही नहीं मिलता है. अन्य विधा में तकनीक रूप से चाह कर भी काम करने के लिए कुछ नहीं कर पाती हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय –आप लिखने के पहले कौन-कौन सी तैयारी करती है ?
कान्ता रॉय — वैसे तो मन में हर वक्त लघुकथाओं के संदर्भों को ही गुनगुनाती रहती हूँ. इसी कारण बहुत से प्लॉट मेरे मन में हमेशा रहते हैं. प्रतिदिन एक लघुकथा पर काम करना मेरी आदत में शामिल है. अगर मै किसी दिन उलझ गई और लघुकथा में कोई प्रयास ना कर पाऊँ तो ऐसा लगता है कि आज का दिन मैं ने अच्छे से जिया ही नहीं है. सब से पहले कथ्य को सोचती हूँ . इस बात पर जोर देती हूँ कि मुझे लघुकथा में किस बात या क्षण विशेष को उभारना है. इस के लिये कौनसा क्षणविशेष सही रहेगा ? यह तय करती हूँ. ऐसा क्षण किन परिस्थितियों में उभरेगा ? इस पर चिंतनमनन करती हूँ .
यह विसंगति सामाजिक हो या पारिवारिक, राजनीतिक या स्त्री विमर्श, इस को कल्पना के सहार, पहले आँख बंद कर के उस क्षणविशेष को घटते हुए महसूस करती हूँ. पात्रों को जीने की कोशिश करती हूँ. देर तक इस अवस्था में रहने के पश्चात अचानक मन प्रफुलित हो उठता है. मन में एक उद्वेग उठता है. एक तरह से यह मेरे एकाग्रता में डूबा हुआ मेरा ध्यान का पल होता है. इसी उद्वेग और इसी पीड़ा को शब्दों का धार देकर लिख डालती हूँ.
हमेशा से ही यही मेरा स्वभाव रहा है. गुस्से में और हताशा के क्षण में मै तीव्र लेखन करती हूँ. और ऐसी अवस्था में ही मेरा लघुकथा लिखना होता है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय – लेखन के लिए कैसा माहौल चाहिए ?
कान्ता रॉय — लेखन के लिये मुझे एकदम एकांत चाहिए. चिंतनमनन के वक्त किसी का बीच में टोकना बहुत अखरता है. मै हमेशा विपरित परिस्थितियों और विपरित माहौल में ही लेखन करने पर विवश होती हूँ.
घर में रसोई की जिम्मेदारी हो या फिर दुकान में ग्राहकों की जिम्मेदारी और ग्रुप में परिंदों की जिम्मेदारी बखूबी निभाती हूँ. , बाकी का दिन रविवार का दिन होता है. यह दिन भोपाल के साहित्यिक मंचों पर गोष्ठियों और बैठकों में ही बीतता है . इन सब में चुपके से मुझे लघुकथा लिख लेना होता है. बस एक बार में, पात्रों के भाव को जीवित रूप में स्वंय में उतार कर, कथा लिख लूँ तो लघुकथा तैयार हो जाती है. बाद में, एक सामान्य पाठक बन कर काट छाँट करती रहती हूँ. काटछाँट कर ने के लिए मूड की जरूरत नहीं पड़ती है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय– आप की अब तक की सब से अच्छी लघुकथा कौन सी है ?
कान्ता रॉय — यह आपने सबसे कठिन सवाल किया है. रचनाकार को अपनी सभी रचनाओं से जु़ड़ाव रहता है. फिर भी मुझे “पथ का चुनाव” सब से अधिक पसंद है. इस में लड़की का अंतर्द्वंद्व उभर कर आया है. लड़की स्वंय के आस्तित्व के प्रति, धर्माचरण के निर्वहन को अच्छे से कथ्य के तौर पर उभार पाई हूँ.
ओमप्रकाश क्षत्रिय – किसी एक लघुकथा की रचना प्रक्रिया बताए ? आप को उस लघुकथा के लिए भाव कहाँ से आए ? किस तरह मानसिक पटल पर उसे तैयार किया ? फिर कागज पर वह कैसे साकार हुई ? आदि .
कान्ता रॉय– एक कथा है मेरी ” उड़ान का बीज”. यह कथा सरजी यानि योगराज प्रभाकर जी की एक लघुकथा ” नियति” के कथानक पर आधारित है. इस कथा में कथ्य, एक प्रचलित मुहावरे के आधार पर बुना गया है लेकिन जब मैने इस कथा को पढ़ा तो पहली बार इस मुहावरे से निकले कथ्य पर अंतर्मन से दुखी हुई . चींटी की कर्मठता और उस की कर्मनिष्ठा पर सवाल लगाता हुआ ये मुहावरा मुझे जरा भी सही नहीं लगा.
बस चींटी के जीवन की उपलब्धियों को , उस के संगठित हो कर सतत काम में लीन रहना और उस के देह में पंख निकलने के जैविक कारणों को मैं ने कथ्य बनाया. एक कर्मवीर जीव, जब दुनिया से विदा लेता है तो वह अपने अधूरे कामों के प्रति चिंचित रहता है. वह लक्ष्य के प्रति जिम्मेदारियों को निर्वाह करते हुए ही अपना प्राण त्यागता देता है. इसी भाव को इस लघुकथा के मूल कथ्य में रखा है.
ओमप्रकाश क्षत्रिय – आप की भावी योजना क्या-क्या है ?
कान्ता रॉय—योजनाए तो बहुत है. हिन्दी साहित्य के परिप्रेक्ष्य में- लघुकथा मुख्य धारा में शामिल होते हुए भी अभी मुख्य धारा से अभी काफी दूर है. वह मैगजीनों में फिलर बन कर नहीं, बल्कि स्थाई स्तम्भ के रूप में अपनी जगह बनाए , इसी उद्देश्य को अपना लक्ष्य बनाया है . यही मेरा संकल्प भी है . यहाँ भोपाल में आदरणीय दिनेश प्रभातजी को उन के गीत गागर में लघुकथा के स्तम्भ के लिये मना लिया है. ” साहित्य समीर ” की सम्पादक कीर्ति श्रीवास्तव जी से भी चर्चा की है. ” कर्मनिष्ठा ” जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका में लघुकथा का स्थाई स्तम्भ है.
” सत्य की मशाल” की सामाचार सम्पादक होने के तौर पर पिछले साल से ही यहाँ तीन पन्ने कहानी के लिये और उतने ही पन्ने लघुकथा के लिये सुरक्षित किए है मैं ने. यह मेरा छोटा सा प्रयास है.
यहाँ भोपाल में सभी वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा लघुकथा विधा पर पुस्तक देने की गुजारिश की है. भोपाल में लघुकथा संदर्भ में एक मजबूत जमीन बनाना है. इस मेरा यह प्रयास इस विधा को मजबूती प्रदान करेगा . २८ साल बाद मैं ने अपनी पढ़ाई फिर से शुरू की है. लघुकथा पर शोध करने की चाहत भी है. देखिए, मेरे सपने तो बहुत है विधा के संदर्भ में. लेकिन पूरे कितने होंगे, अभी कहना मुश्किल है ? कर्म में विश्वास करती हूँ. बस लगातार काम करते जाना है. यह मेरा सपना है. बाकी ऊपर वाले के हाथ है.
कई संकलन और कई संग्रहों पर भविष्य में काम करना बाकी है.
( कह कर कांता रॉय सुस्ताने लगी. हमे लगा कि आज के लिए इतना बहुत हो गया. इस लिए अंत में एक प्रश्न पूछ लिया.)
ओमप्रकाश क्षत्रिय—- अंत में कुछ कहना चाहेंगी ?
कान्ता रॉय — लघुकथा लेखन संदर्भ में बस यही कहूँगी कि यह लघुकथा हड़बड़ा कर या जल्दीबाजी में लिखने की चीज नहीं है. आप अपनी लिखी हुई लघुकथा को बहुत दिन तक अपने साथ रखिए . यह गुरूमंत्र योगराज प्रभाकरजी का दिया हुआ है. अपनी लघुकथाओं के साथ अधिक से अधिक समय बिताइए ताकि हर बार आप को कुछनकुछ कमी आप को पता चलती रहे.
सच कहूँ तो पूज्यनीय योगराज प्रभाकर सरजी का आलेख ” लघुकथा के तेवर और कलेवर ” हमारे लिये पहला पाठ है लघुकथा विधा के विधान को समझने के लिए.इसे हर लघुकथा लेखक को पढ़ना चाहिए. ऐसा मेरा निजी विचार है.
मैं ने हमेशा इस का जिक्र किया है. इस में लघुकथा के सभी मानकों को समझाने का प्रयास किया. और आज मैं जो भी हूँ उन्हीं की देन हैं. सब से आग्रह है कि पहले पढ़े फिर गुने और अंत में लिखे. आप अवश्य सफल होंगे.
— ओमप्रकाश क्षत्रिय