सिगुर भूमि अधिग्रहण पर उच्चतम न्यायालय का आदेश: ममता बनर्जी की सैद्धांतिक जीत
ममता बनर्जी का व्यक्तित्व शुरू से ही एक जुझारू, प्रखर राजनेत्री का रहा है उनकी राजनीतिक सफर का अवलोकन करे तो उनकी राजनीतिक जीवन की शुरुआत एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में हुई और 1976 – 1980 तक काग्रेस के महासचिव के रूप में कार्यरत भी रही तथा 1984 में जादवपुर लोकसभा से सोमनाथ चटर्जी जैसे दिग्गज नेता को हराकर पहली बार संसद पहुंची तथा भारत में सबसे कम उम्र की सांसद होने का गौरव भी हासिल किया।
ममता बनर्जी के अब तक के राजनीतिक सफर में ऐसे कई उदाहरण है जब उन्होने अपने सिद्धांत और फर्ज को अपनी पद और सत्ता की लोलुपत्ता से उपर रखा और जरूरत पड़ने पर अपने ही दल का विरोध करने से गुरेज नही किया , बस यही खासियत उन्हे अन्य राजनेताओ से अलग करती है और शायद यही उनके सफलता का कारण भी रहा ।
उन्होने नरसिम्हाराव की सरकार में युवा कल्याण- खेलकूद राजय मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला किंतु 1991 लेकिन उनके द्वारा प्रस्तावित योजनाओं को सरकार ने नही स्वीकारा तो उन्होने अपने ही सरकार का विरोध किया और इस्तीफा दे दिया ।
1996 में फिर से काग्रेस सरकार द्वारा केन्द्रीय मंत्री बनाई गई लेकिन पेट्रोल की बढती कीमत का विरोध कर पुनः इस्तीफा दे दिया और आल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के नाम से नई पार्टी बनाई और यही से ममता बनर्जी के राजनीतिक जीवन के एक नवीन सफर की शुरूआत हुई ।
1999 में जब एन डी ए की सरकार आई तो वो अपनी पार्टी के साथ सरकार में शामिल हुई तथा रेलमंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला किंतु पुनः कुछ आरोपों के कारण 2001 में उन्होने इस्तीफा दे दिया लेकिन 2004 में फिर एन डी ए सरकार में शामिल हुई और कोयला खाद्यान्न मंत्री के रूप में कार्यभार संभाला किंतु 2006 के पश्चिम बंगाल के विधान सभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह हार गई , तब यह महसूस होने लगा कि अनगिनत क्षेत्रीय पार्टी की तरह यह भी धीरे धीरे या तो दम तोड़ देगी या सिमट जाएगी , किन्तु यह वही दौर था बुद्धदेव भट्टाचार्य की कम्यूनिस्ट सरकार ने टाटा मोटर्स जैसे देश की बड़ी कंपनी को पश्चिम बंगाल के सिंगुर में नैनो कार प्लांट लगाने की महत्वकांक्षी योजना को मंजूरी दी थी , इसके तत्काल किसानो के 1000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर टाटा मोटर्स को सौंपी गई थी तथा किसानो को नौकरी और पैसों का सब्जबाग दिखाई गई थी , किंतु ममता बनर्जी ने इसका पुरजोर विरोध शुरू किया और किसानो के साथ डटकर खड़ी हो गई , वह दौर था जब देश के सभी राज्य अलग अलग कंपनियों अपने राज्य में निवेश का निमंत्रण दे रहे रहे और यह राज्य के विकास का मानक समझा जा रहा था , ऐसी स्थिति एक नागरिको का एक महकमा इसे राज्य को विकास में पीछे धकेलने की साजिश मानकर उनकी खूब आलोचना कर रहा था किंतु हर बार की तरह ममता बनर्जी अपने उपाय कदम से पूर्णरूप से संतुष्ट और अटल रही ,और जमीन अधिग्रहण के खिलाफ तृणमूल के नेतृत्व उच्च न्यायालय में याचिका डायर की गई किंतु 2008 में उच्च न्यायालय ने भूमि अधिग्रहण को जायज ठहराते हुए याचिका खारिज कर दिया तब लगा कि शायद यह अधिग्रहण होके रहेगा और ममता बनर्जी शायद यह लड़ाई हार जाएगी किंतु इसी बीच 2011 में पश्चिम बंगाल में विधानसभा के चुनाव हुए और ममता बनर्जी ने यू पी ए के गठबंधन के साथ चुनाव लड़ा और व्यापक सफलता हासिल हुई और पहली बार राज्य से तकरीबन 35 साल पुरानी वामपंथी सरकार को हार का सामना करना पड़ा और ममता बनर्जी पहली महिला मुख्य मंत्री के रूप में काबिज हुई ।
सत्ता में आते ही ममता बनर्जी ने किसानो को जमीन वापस दिलाने की मुहिम तेज करते हुए भूमि रिक्लेम अधिनियम पास किया , लेकिन कोलकता उच्च न्यायालय ने इस कानून को ही खारिज कर दिया , इससे संबंधित याचिका भी अभी उच्चतम न्यायालय के पास लंबित है , फिर यह लड़ाई उच्चतम न्यायालय पहुँच गयी ।
गत दिनों जब उच्चतम न्यायालय ने इसपर अपना फैसला सुनाया और कोलकता उच्च न्यायालय के फैसले को निरस्त करते हुए अधिग्रहित भूमि को किसानों को वापस करने की बात कही तो यह फैसला जितना किसानों के लिए सुकून वाला था ममता बनर्जी के लिए भी यह एक बहुत बड़ी सैद्धांतिक जीत है तथा उनके व्यक्तित्व को नया आयाम दिया है ।
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली “