उपन्यास अंश

नई चेतना भाग — २

धीरे धीरे चलते हुए अमर फैक्ट्री पहुँच गया । सभी मजदूर अपना अपना काम शुरू कर चुके थे । धनिया भी अपने काम में मशगुल हो चुकी थी। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ हुआ ही ना हो । थोड़ी देर तक अमर ऑफिस की खिड़की से एकटक धनिया की ओर ही देखता रहा और अंदाजा लगा रहा था कि धनिया ने वाकई अपनी मर्जी से ही सहमति दर्शायी थी या फिर उसने उसके रुतबे से सहम कर समझौता कर लिया था। वह कुछ समझ नहीं पा रहा था क्योंकि धनिया ने इस आधे घंटे के दौरान एक बार भी उसकी तरफ देखने का प्रयास नहीं किया था ।

इधर धनिया के छोटे से ह्रदय में भी कम उथलपुथल नहीं मची थी । लेकिन वह मजबूत ह्रदय और पक्के इरादों वाली लड़की थी। दिल की हलचल को अपने होठों पर ना लाना और चहरे पर उसके असर से खुद को बेअसर रखने के लिए बहुत बड़े जिगर की जरूरत होती है जो निस्संदेह धनिया के पास था । वह अमर के मनोभावों से अंजान अपने काम में मशगुल थी। अलबत्ता वह अपने जीवन के इस प्रथम अनुभव से बहुत ही रोमांचित हो उठी थी । मन में चल रही हलचल को मन तक ही सिमित रख धनिया बड़ी फुर्ती से अपना काम किये जा रही थी । साथी लड़कियाँ भी उसके साथ ही काम में तल्लीन थीं ।

कोई एक घंटे बाद अमर के घर से नौकर रामू दौड़ता हुआ आया और अमर को सलाम करके अदब से बोला ” छोटे मालिक ! बड़े मालिक ने आपको बुलाया है ।”

” ठीक है रामू काका ! तुम चलो ! मैं बस अभी आया ।” कह कर अमर उठ खड़ा हुआ। रामू वापस चले गया था । लेकिन अमर अभी तक वहीँ ऑफिस में खड़े आनेवाली स्थिति से निबटने का उपाय सोचने में व्यस्त था। और फिर थोड़ी ही देर में अपने सहयोगी कृष्णा को कुछ हिदायतें देकर अमर घर की तरफ चल दिया था । घर लगभग आधा किलोमीटर ही दूर था सो दो मिनट में ही अमर की मोटरसाइकिल अपनी हवेली के प्रांगण में थी ।

बाहर दालान में ही मेहमानों के साथ लाला धनीराम और अमर की माताजी भी मेहमाननवाजी की औपचारिकता पूरी कर रही थी। लाला अमीरचंद भी खासे उत्साहित दिख रहे थे और कुछ हलकी फुलकी सामाजिक बातें हो रही थीं । अमर के प्रवेश करते ही लाला धनीराम ने इशारा किया ‘ यही अमर है । हमारा इकलौता बेटा ।’

अमर ने दोनों हाथ जोड़कर लाला अमीरचंद का अभिवादन किया और वहीँ नजदीक ही पड़े सोफे पर शालीनता से बैठ गया। लाला अमीरचंद ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया और उससे उसकी शिक्षा वगैरह के बारे में पूछा ।

अमर का जी तो चाह रहा था कि वहीँ चीख चीख कर कह दे कि ‘लालाजी ! मुझे आपकी बेटी से शादी नहीं करनी फिर क्यों आप इतना परेशान हो रहे हैं ‘ लेकिन प्रकट में उनके सभी सवालों का शालीनता से जवाब देता जा रहा था। कुछ देर बैठने के बाद अमर को वहाँ से जाने की इजाजत मील गयी थी। अमर सभी का अभिवादन कर वहाँ से वापस अपनी फैक्ट्री में चला आया।

उसकी गैरमौजूदगी में कृष्णा ने मजदूरों से काम कराने में कोई कोताही नहीं बरती थी परिणामस्वरूप कल शहर जानेवाले मसालों के पैकेट बड़े खोखों में भर कर तैयार कराये जा रहे थे। धनिया बड़ी फुर्ती से मसालों के पैकेट को इलेक्ट्रिक हीटर की मदद से पैक करती जा रही थी ।

शाम को छुट्टी होने के बाद अमर ने इशारे से धनिया को कुछ देर रुकने के लिए कहा । धनिया वहीँ एक कोने में रुक गयी थी । चहरे पर प्रश्नवाचक भाव थे लेकिन जुबान खामोश थी। जब सभी मजदूर चले गए अमर ने उसे फैक्ट्री से बाहर निकलने का इशारा किया और स्वयं भी बड़ा सा ताला लेकर मुख्यद्वार से बाहर आ गया । मुख्यद्वार पर ताला जड़ते हुए धनिया की तरफ देखे बिना ही बोला ” तुम हर हाल में मेरा साथ निभाओगी न ? वादा करो ! ”

धनिया यह अजीब सा प्रश्न सुन कर चौंकी लेकिन फिर भी चहरे पर मोहक मुस्कान बिखेरती मधुर स्वर में बोली ” आपको मुझ पर भरोसा नहीं है मालिक ? अब मैं आपको कैसे भरोसा दीलाऊँ ?”

मुख्यद्वार पर ताला जड़ने के बाद अमर अपनी बाइक की तरफ बढ़ते हुए बोला ” क्या तुम तब भी मेरा साथ निभाओगी जब मैं यह जमीन जायदाद सब छोड़ कर कहीं किसी और शहर में निकल जाऊं ? क्या तब भी तुम मेरे साथ रहोगी जब मेरे दिन गरीबी में बीत रहे होंगे।” लगे हाथ अमर ने अपने मन की आशंका को धनिया के सामने प्रकट कर दिया था ।

“मालिक ! आज क्या मैं गरीबी नहीं झेल रही हूँ ? और मालिक ! मुझे आपकी चाहत है आपके जमीन जायदाद की नहीं। आपका साथ निभाते हुए अगर मुझे फांके भी करने पड़े तो मैं अपने आपको खुशकिस्मत मानूंगी लेकिन मेरी आपसे एक विनती है। मैं अभी भी आपसे निवेदन करूंगी कि आप बड़े मालिक की बात नहीं टालेंगे । वो बड़े हैं आपसे उनकी कुछ आशाएं होंगी । उन्हें पूरी करने की भी जिम्मेदारी आपकी ही है।” धनिया ने उसे समझाने की भरसक कोशिश की ।

” तुम ठीक कह रही हो धनिया ! वो बड़े हैं । मैं उनके लिए अपनी जान भी दे दूँ तो कम है लेकिन इस कमबख्त दिल का क्या करूँ जिसकी हर धड़कन तुम्हारा ही नाम लेती है । मैं पिताजी को अच्छी तरह समझता हूँ । वह कभी तुम्हें बहु के रूप में कबुल नहीं करेंगे और मैं तुम्हारे बीन जीने की सोच भी नहीं सकता । ” कहते कहते अमर के चहरे पर असीम वेदना उभर आई थी ।

” मालिक ! आप इतना मायूस क्यों हो रहे हो ? बड़े मालिक आपके पिताजी हैं । और कोई भी बाप अपने औलाद की ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी ढूंढता है । वो जरुर आपकी बात मानेंगे । और अगर नहीं माने तो भी मैं हर हाल में आपके साथ हूँ । अब मेरी जिंदगी आपके हवाले है । ” धनिया बेहद आत्मविश्वास से बोली ।

अमर बाइक शुरू कर चूका था । बोला ” ईश्वर से प्रार्थना करो कि पिताजी मान जायें ।” धनिया को वहीं खड़ी छोड़ वह एक झटके से आगे बढ़ गया था ।

अमर घर पहुंचा तो मेहमान जा चुके थे । लाला धनीराम घर में नहीं थे । अमर की माताजी सुशीला देवी घर में ही रसोई घर में थीं । नौकरानी बेला सुशीला की मदद कर रही थी । अमर सीधे रसोईघर में जा पहुंचा । छूटते ही माँ के गले से लिपट पड़ा । सुशीला देवी मुस्करायीं बोली ” क्या बात है ? आज बड़ा प्यार आ रहा है माँ पर । ”

” माँ ! माँ! ” अमर कुछ कहना चाहता था लेकिन जुबान उसका साथ नहीं दे रहे थे ।
” हाँ हाँ बोल बेटा ! क्या कहना चाहता है ? बोल ! ” सुशीला देवी ममता लुटाती हुयी बोलीं ।

” माँ ! एक बात कहूँ ! बुरा तो नहीं मानोगी । ” अमर ने खुशामद भरे स्वर में कहा ।
सुशीला फिर ममता भरे स्वर में बोली ” बेटा ! आज तक तेरी किसी बात का बुरा हमने माना है ? फिर ये तू कैसी बातें कर रहा है ? चल अब पहेलियाँ न बुझा । सीधे सीधे कह दे क्या कहना चाहता है । मुझे अभी बहुत सारा काम करना है ।”

अमर ने सोचा ‘ मौका अच्छा है । पिताजी भी नहीं हैं और मैं माँ से खुल कर अपने मन की बात कह सकूँगा । बोल उठा ” माँ ! मुझे आशीर्वाद दो माँ ! ”

” अरे बेटा ! मेरा तो रोम रोम तुझे आशीर्वाद हर वक्त देता है ।” सुशीला देवी बोलीं ” अब बताएगा भी आखिर बात क्या है ? ”

अमर छोटे बच्चे की तरह मचलता हुआ सा बोला ” माँ ! मैं लाला अमीरचंद की बेटी से शादी नहीं करना चाहता माँ । ”

” क्यों ? क्या तकलीफ है ? अच्छी है ‘ खानदानी है ‘ उसके परिवार के लोग भी अच्छे हैं । और दहेज़ भी अच्छा खासा दे रहे हैं । फिर क्यों नहीं करेगा शादी ? ” सुशीला ने जवाबी सवाल दाग दिया था ।

अमर ने रहस्यमयी मुस्कान के साथ जवाब दिया ” इसलिए माँ क्योंकि मैंने तुम्हारे लीये बहु पसंद कर लीया है। ”

उम्मीद के विपरीत सुशीला देवी मुस्करायीं और बोली ” अच्छा ! तो कौन है वो भागवान ? ”

“धनिया!” अमर ने देर न करते हुए तपाक से जवाब दिया ।
“कौन धनिया ? बाबु हरिजन की लड़की ?”

(क्रमशः)

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।