असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार का पर्याय बनते जा रहे अस्पताल
अभी कालाहांडी के आदिवासी दाना मांझी के पत्नी के मृत्यु के पश्चात पैसे के अभाव में एम्बुलेंस नहीं उपलब्ध करवाने और दाना मांझी द्वारा अपनी पत्नी के शव के तकरीबन 10 किलोमीटर अपने कंधे पर ले जाने जैसी असंवेदनशील घटना जिसमे आम नागरिक की असंवेदनशीलता तो सामने आई ही थी साथ सबसे गैर जिम्मेदाराना कृत्य और अस्पताल की असंवेदनशीलता स्पष्ट देखने को मिली थी , अभी यह मामला शांत भी नही हुआ था कि झारखंड के रिम्स अस्पताल में एक महिला को थाली नहीं होने पर फर्श पर ही खाना परोसने जैसी घटना ने हिला कर रख दिया है , सबसे दुखद है इस घटना का राष्ट्रीय खबर बनने के बाद अस्पताल के डायरेक्टर वी एल शेरवाल का बयान , उनका कहना है कि हमने यह अस्पताल किसी लावारिस के लिय नहीं खोल रखा है और उक्त महिला लावारिस थी, जबकि देश के हर समाचारपत्र में प्रकाशित उस महिला की तस्वीर में उसके एक हाथ में पट्टी बंधी है देखी जा सकती है , यह असंवेदनशीलता की प्रकाष्ठा है , डायरेक्टर साहब एक कुशल व्यवसायिक की तरह दलील दे रहे जैसे उन्होने कोई अस्पताल नहीं कोई रेस्टोरेंट खोल रखा हो , प्रश्न है ऐस मानसिकता वालों को क्या सजा मिलनी चाहिए? और कौन इनकी जिम्मेदारी तय करेगा ? या फिर यह खेल ऐसे ही चलता रहेगा ?
अस्पताल एक ऐसा स्थान है जहाँ चिकित्सक और अस्पताल के बाकी कर्मचारियों को छोड़ हर इंसान तभी पहुंचता है जब वो किसी न किसी शारीरिक पीड़ा से गुजर रहा हो चाहे वह पीड़ा किसी बिमारी से हो दुर्घटना से हो या महिलाओं का प्रसव पीड़ा ही क्यूँ ना हो , कहने का तात्पर्य यह कि इंसान जब भी किसी अस्पताल में पहुंचता है बेहद मानसिक तनाव में होता है , ऐसी हालत में हर पीड़ित चाहता है कि उसे जल्द से जल्द जो सुविधाएँ उसे चाहिए वो मुहैया करवाई जाए जिससे वो कम से कम मानसिक राहत महसूस कर सके , ठीक वैसे ही अस्पताल के प्रसाशन , चिकित्सक और कर्मचारियों की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि मरीज और उनके परिजन के मानसिक तनाव को समझते हुए उन्हें सुविधाएँ दे और अपने व्यवहार में सेवा भावना रखें , लेकिन इसके इतर आज तो देश के अस्पतालों की वर्तमान स्थिति है वो किसी से छूपा नही है ,दाना मांझी और झारखंड के रिम्स अस्पताल की यह घटना इकलौती नहीं है , आज जहाँ सरकारी अस्पताल बहुत बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का शिकार है वही दूसरी तरफ गैरसरकारी अस्पताल सेवा भाव से इतर एक बड़ा व्यवसाय बन कर उभरा है , हर वर्ष सरकारी अस्पतालों को करोड़ो रूपए सरकार के द्वारा वित्तीय सहायता देने के बावजूद बेड की कमी , पानी का आभाव , प्रयाप्त मशीन का ना होना , ड्यूटी पर डाक्टर की अनुपलब्ध, मरीजों के मिलने वाले सुविधाओं में कटौती और सबसे उपर आपात स्थिति में भी बड़े अस्पताल में नम्बर का नहीं मिलना जैसी घटना बहुत आम है और किसी से छूपी नहीं है , आज भी कई बड़े अस्पताल में इलाज करवाने हेतु तथा अपात या आवश्यक स्थति में एडमिट होने को किसी विधायक, सांसद ,नेता या किसी नामचीन के पैरवी की आवश्यकता होना आज की तारीख में एक बहुत साधारण बात है और अब ऐसे समाचार किसी अखबार का या चैनल का हिस्सा भी नहीं बनते है , क्यूँकि हम सब ने इस असंवेदनशीलता से समझौता कर लिया है , आज आप किसी भी सरकारी अस्पताल में चले जाए आपके धक्के खाते मरीजों के परिजन और बेड के अभाव में फर्श पर लेटा मरीज जरूर देखने को मिल जाएगा , ये तो ऐसी असंवेदनशीलता है जो नजर आती है असली खेल तो पीछे चलता है जो दिखता नहीं है जैसे दवा की अनुपलब्धता और गरीब मरीजों को भी दवा और जांच हेतु अस्पताल से बाहर भेज कर मंगबाना और अस्पताल में दवा बस अभी खत्म हुई है इसका रोना रोना , आज की तारीख में किसी से छूपा नहीं है कि सरकारी अस्पताल का हर डाक्टर अपना एक प्राईवेट क्लिनिक या अस्पताल खोल कर बैठा है और उसकी कोशिश होती है कि मरीजों को सरकारी जांच मशीन को खराब या बेकार बताकर अपने निजी क्लिनिक तक ले जाया जाए , चिकित्सक की दवा की दुकान और जांचघर से इमानदारी पूर्वक मिलने वाला कमीशन भी अब बहुत बड़ी बात नही और अधिकतर लोगों को इसकी जानकारी है और उससे भी अधिक अधिकतर चिकित्सक अपनी निजी क्लिनिक के साथ एक दवा का दुकान भी खोल लेते है और कोशिश होती है मरीजों को अधिक से अधिक दवा लिखे और सिर्फ वहीं दवाईया लिखे जो उनके निजी दवा के दुकान पर ही उपलब्ध हो , सबसे दुखद है यह सब हर बड़े शहरों के साथ छोटे शहरों मे भी हो रहा है सरकार के ठीक नाक के नीचे लेकिन यदा कदा की कार्रवाई छोड़ दे तो भ्रष्टाचार का यह धंधा बड़े पैमाने पर घड़ल्ले और सुकून से चल रहा है ।
गैरसरकारी अस्पताल की असंवेदनशीलता तो जैसे असहनीय होती जा रही है , अस्पताल को अस्पताल न बोलकर एक बिजनेस सेंटर कहे तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए , ऐसे अस्पताल में जहाँ गरीब तो गलती से भी पांव नहीं रखते , मध्यम वर्गीय परिवार भी घबराता ही दाखिल होता है , जहाँ मरीज अपनी शारीरिक पीड़ा से परेशान रहता है उनके परिजन खर्च के बोझ तले मानसिक पीड़ा के शिकार हो जाते है , अस्पताल की वातानुकूलित कमरे और स्टार होटल जैसी सुविधा आपको आकर्षित तो करती है लेकिन उसके एवज में लिया गया शुल्क इतना अधिक होता है कि कोई गरीब उस ओर रूख भी नहीं कर सकता है , हर गैरसरकारी अस्पताल के अपने दवा के दुकान , निजी जांच केन्द्र , निजी एक्सरे सेन्टर , और अल्ट्रासाउंड सेन्टर है जिसका शुल्क बाहर के किसी जांच केन्द्र से कई गुणा ज्यादा है और व्यवसायीकरण का यह आलम है कि हर निजी अस्पताल सिर्फ अपने ही जांच केन्द्र, एक्सरे या अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट को ही मान्यता देते है , यदि मरीज ने इलाज के दौरान किसी दूसरे जगह इन जांचो को करवा भी लिया है तो उसे दोबारा वही जांच उस अस्पताल के निजी जांच केन्द्र में करवाना होता है और कई गुणा ज्यादा शुल्क देने पड़ते है , कई बार आवश्यकता नहीं भी रहने पर मरीजों को आई सी यू में डाल देना तो आम बात हो गई है, इतना ही नहीं मुश्किल स्थति में या मृत्यु के पश्चात भी वेंटिलेटर पर रखे रहने की घटना का समाचार कई बार उजागर हुआ है और यह सत्य है , बच्चे चोरी , और किडनी चोरी जैसा अपराध भी कई बार अस्पतालों से घटित हुआ है और राष्ट्रीय समाचार बना है , कहते है सिनेमा समाज का आईना होता है अगर यह सत्य है तो ” मुन्ना भाई एम बी बी एस ” और “गब्बर ईज बैक ” जैसी हिट फिल्में यह बताती है कि आज अस्पताल भ्रस्टाचार और असंवेदनशीलता का अड्डा बन चुका है ।
ऐसे में जरूरत है सरकार के ठोस दखलअंदाजी की , सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों को कानून और नियमावली में बांधने की , सरकारी अस्पतालों में नम्बर लगाने और चिकित्सक से मिलने की अनुमति को अधिक से अधिक त्वरित और पारदर्शी करने की आवश्यकता है , जो भी मरीज एडमिट है उन्हें बेड निश्चित रूप से मिले , सरकारी अस्पताल में हर हालत में जांच और दवाई अस्पताल ही मुहैया कराए, अगर जांच अस्पताल में संभव न हो तो बाहर सरकार द्वारा तय किए गए दर पर या डिस्काउंट दर पर मरीज की जांच की जिम्मेदारी अस्पताल की ही हो, ऐसा नही की अस्पताल सिर्फ यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से भाग जाए कि अमुख जांच मशीन यहाँ खराब है आप बाहर से करवाकर आए , कहने का तात्पर्य यह है कि अगर कोई मरीज किसी अस्पताल में इलाज हेतु पहुंचा है तो तमाम बुनियादी सुविधा के साथ यह अस्पताल की जिम्मेदारी हो कि उसे सब दवा और जांच की सुविधा मुफ्त या कम खर्च पर मिले , गैरसरकारी अस्पतालों को भी नियम के दायरे में कसने की जरूरत है ,ऐसी कोई व्यवस्था जरूर होनी चाहिए की एक गरीब भी गैर सरकारी अस्पताल का लाभ ले सके जैसे जाहिर है कि हर गैरसरकारी अस्पताल के वातानुकूलित कमरे और टेलीविजन और फ्रीज जैसी सुविधा देने हेतु अस्पताल पर भी खर्च का भार आता है तो हर गैर सरकारी अस्पताल में ही साधारण दर पर साधारण कमरे और ऐसे रोग से ग्रसित मरीज जिसे अस्पताल में रूकने की आवश्यकता तो है लेकिन किसी प्रकार के संक्रमण का खतरा नही है जैसे हड्डी टूट और प्रसूति महिलाओ के लिए सरकारी अस्पताल के तर्ज पर जेनरल हाॅलनुमा वार्ड जिसमे अधिक से अधिक मरीज आ सके जरूर उपलब्ध होने चाहिए यदि मरीज अस्पताल के निजी जांच केन्द्र से जांच कराने में अपनी असमर्थता व्यक्त करे तो तो दूसरे जांच केन्द्र या सरकारी जांच केन्द्र के जांच रिपोर्ट को मान्यता देना अनिवार्य करने की आवश्यकता है ।
अगर सरकार चाहे तो हर जिला में एक या अधिक आवश्यकता अनुसार सस्ते दर पर उपलब्ध सरकारी जांच केन्द्र खोल सकती है जिसके रिपोर्ट की मान्यता हर सरकारी और गैरसरकारी अस्पताल मे होना अनिवार्य हो , इसी तर्ज पर सरकारी दवाखाना भी खोल सकती है जिसमे सभी दवाईया उपलब्ध हो और आवश्यक होने पर आॅनलाईन सीधे कंपनी से मंगवाने की सुविधा मिले , क्योकि जितने भी छोटी बड़ी दवा की कंपनियाँ है उनके हर क्षेत्र में अधिकृत वितरक मौजूद होते है, तो कुछ घंटों में अनुपलब्ध दवा का उपलब्ध हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है , चिकित्सक द्वारा दवा के साथ उसके बनाने वाले कंपनी का नाम साझा करना अनिवार्य हो, जिससे सरकार द्वारा अधिकृत दवाखाना असानी से उस कंपनी से सीधे दवा मंगवाकर मरीज को उपलब्ध करवा सके , मुफ्त एम्बुलेंस और इलाज के दौरान मृत्यु की स्थिति में मुफ्त शव वाहन जैसी बुनियादी सुविधा देना अनिवार्य हो क्योकि कई राज्यों में सरकार द्वारा ऐसी योजना के बावजूद अस्पताल की बहानेबाजी निरंतर जारी रहती है , इन बुनियादी सुधार के साथ और कुछ कठोर नियमावली और कानून की आवश्यकता है क्योंकि जो वर्तमान हालत है ” असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार का पयार्य बनते जा रहे है अस्पताल ”
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली “