कस्तूरी !
कस्तूरी !
कस्तूरी अनमोल है, दुर्लभ है।
हर मृग की नाभी में नहीं होती।
प्यार भी उतना ही अनमोल है,
दुर्लभ है, हर किसी के भाग्य में
नहीं होता। यह ईश्वर की अनुकंपा
है, जब होती है तो……
धरती पर उगती है कस्तूरी
शैल पत्थर गुनगुनाते हैं,
जिस्मों से रिस्ती है चांदनी
वस्त्र मन के सारे, भींग जाते हैं
तन्हाई में घुल जाता है
बांसुरी का दर्द,
दिए मुस्कानों के कभी,
अजाने जल जाते हैं
दहक उठता है सूखे ठूठों पर
पलाश
जब मौसम के हरसिंगार
सारे झर जाते हैं।।
और अपने विशुद्धतम रूप में
कभी यह मीरा बन जाता है,
कभी कबीर तो कभी नानक।
– बलवंत सिंह
(१९८२)