सामाजिक

राष्ट्र की सच्ची शक्ति: प्रो. सन्तराम

ओ३म्

 

किसी राष्ट्र की सच्ची शक्ति उसकी विपुल वाहिनियों, विध्वंसकारिणी मशीनगनों, और बम्ब बरसाने वाले लड़ाकू हवाई जहाजों में उतनी नहीं, जितनी कि उसके भीतरी सामाजिक संगठन में रहती है। जो राष्ट्र भीतर से थोथा और फटा हुआ है, जिस की जनता एकता के सूत्र में बंधी हुई नहीं है, उस की रक्षा टैंक और मशीनगनें तो क्या परमाणु बम्ब भी नहीं कर सकते। ऐसा राष्ट्र तब तक ही सुरक्षित रहता है जब तक कोई दूसरा प्रबल राष्ट्र उस पर आक्रमण नहीं करता। बाहर से प्रबल आक्रमण होते ही वह राष्ट्र अपनी रक्षा करने में असमर्थ हो जाता है। हिन्दू-समाज में जन्म-मूलक ऊंच-नीच की दरारें पड़ी हुई थीं, इसकी एकता का सूत्र भंग हो चुका था, इसलिए जब उत्तर-पश्चिम से मुट्ठी भर उजड्ड, असभ्य और अशिक्षित मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किया तो न हमारे रण-बांकुरे राजपूतों का शौर्य, न वेदज्ञ ब्राह्मणों का पाण्डित्य और न व्यापार-कुशल वैश्यों की अमित धनराशि ही भारत की रक्षा कर सकी। गजनी के महमूद गजनी ने एक बार नहीं, सत्रह बार इस देश पर आक्रमण किया, पर हिन्दू-राष्ट्र उस का मुंह मोड़ने में एक बार भी समर्थ न हो सका। उस समय हिन्दुओं के पास गोला-बारूद, तोप-तलवार और धन-जन की कोई कमी न थी। इसलिए मानना पड़ता है कि यदि किसी राष्ट्र में बन्धुता एवं एकता का अभाव हो, तो उस की जन-संख्या बहुत अधिक होने पर भी वह दुर्बल ही रहता है।

 

उपर्युक्त पंक्तियों के लेखक प्रो. सन्तराम जी हैं। आप आर्यसमाज के शिरोमणी स्वामी श्रद्धानन्द जी के समकालीन थे और उनके साथ आपने समाज सुधार का कार्य किया था। प्रो. सन्तराम जी की उपर्युक्त पंक्तियां हमने उनकी पुस्तक ‘‘हमारा समाज” से प्रस्तुत की हैं जिसका प्रकाशन सन् 1987 में होशियारपुर के विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान’ ने किया है। 18 परिच्छेदों में विभक्त 282 पृष्ठीय इस पुस्तक का यह तीसरा संस्करण है। पहले दो संस्करण 1948 व 1957 में प्रकाशित हुए थे। आजकल हम इस पुस्तक का अध्ययन कर रहे हैं। इस प्रस्तक को इसके लेखक ने स्वामी श्रद्धानन्द जी को समर्पित किया है। समर्पण वाक्य में लेखक ने लिखा है ‘‘अपने युग के सब से पहले और सब से बड़े जातपांततोड़क महात्मा मुन्शीराम जी स्वामी श्रद्धानन्द जीकी सेवा मेंसन्तराम”। इस पुस्तक के तमिल, तेलगू और मलयालयम में अनुवाद भी हुए हैं।

 

इन पंक्तियों को प्रस्तुत करने का हमारा उद्देश्य यह है कि न केवल आर्यसमाजी अपितु हिन्दू समाज के सभी लोग इससे प्रेरणा ग्रहण करें अन्यथा जो परिणाम पुस्तक के लेखक ने कहे हैं, वह भविष्य में हमारी आने वाली पीढ़ियों को देखने पड़ सकते हैं। यह भी सत्य है कि हमारे हिन्दू भाईयों ने महर्षि दयानन्द की चेतावनियों पर कान नहीं धरे और आज भी ‘‘अपनी अपनी ढफली अपना अपना राग” की कहावत के अनुसार व्यवहार हो रहा है जो समाज व देश के लिए घातक व हानिकारक है। देश में जन्मना जातिवाद को लेकर जो आन्दोलन हुए व हो रहे हैं तथा जो आरक्षण व बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक व्यवस्था देश में है, वह इसका प्रमाण है। जन्मना जातिवाद मनुष्य को पृथक करता वा तोड़ता है व सदधर्म वैदिक धर्म लोगों को परस्पर जोड़ता है। स्वामी दयानन्द के विश्व प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में प्रस्तुत शब्दों के अनुसार हम यही कहेंगे कि ‘‘सर्वात्मा सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से सामाजिक एकता में बाधक हिन्दुओं से जन्मना जाति प्रथा को समाप्त करने के ऋषि दयानन्द और प्रो. सन्तराम जी के आशय को विस्तृत और चरस्थायी करे।“

 

मनमोहन कुमार आर्य