“गजल/गीतिका”
वज्न- 2122, 2122 2122, 212
आदमी चलता कहाँ उठता कदम बिन बात के
हो रहा गुमराह देखो, हर घड़ी बिन साथ के
काँपती हैं उँगलियाँ उठ दर्द सहलाती रहीं
फासला चलता रहा खुद को पकड़ बिन हाथ के॥
नाव नदियां साथ चलती साथ ही पतवार भी
देखता है धार नाविक ठाँव कब बिन नाथ के॥
लोग कहते हैं कि देखों तैरती ये मछलियाँ
धार उलटी बह चली हैं जाल कब बिन तात के॥
आदमी को आदमी अब क्यूँ भला तकता नहीं
वो पड़ा है आदमी मरता कि वह बिन बात के॥
शब्द तो होते सहज हैं भाव खाता आदमी
चाबखा भरता नहीं हैं आह कब बिन घात के॥
देखकर गौतम चलाकर आँख आँसू पारखी
कर्म कंधा सत्य शाश्वत, हर्ष कब बिन पार्थ के॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी