कविता

बारिश में तेरी यादें

आज बिन मौसम की जिद्दी बारिश,बरसी है मेरे आँगन में ………
भिगो गयी सब कुछ…अंदर -बाहर..कुछ न बचा,
अब सूखा सा,कहीँ भी….
गीला कर गयी ,उन निशां को,जो रख सँभाले थे,
मेरे आँगन और दरों दीवार पर,किसी नौबहार
की तरह

लोबान सी महकती यादें,आज फिर तरबतर हैं
गीली सी,
सुखाऊँ कहाँ…कोई जगह ही नही बची,घर के
किसी कोने मेँ…..
अंदर बाहर बेतरतीब सी बिखरी जो हैं, ये तेरी ढीट यादें,

बारिश का सैलाब भी बेवस हैं ,इन यादों के जखीरे के आगे,
अनायास ही सूखी नदी सा रास्ता देता है,मुझ तक आने का।
वैसे भी,यह मुनाफे का ही सौदा रहा है,मेरे लिए
तो,
जिसमे घाटा मुझे मंजूर नही और फायदा कभी
होता ही नही…….

वह गीली सी छाता ,रिसती रही है,जो थमायी थी
तुमने,मेरे थरथराते हाथ मेँ,
धुंद्ध में गुम हो जाने से पहले,
पेशोपेश में हूँ….कहीँ बाहर सुखाऊँ तो,भीग
कर महक ही जाएंगी और भी ,
गर ,अंदर अलाव दूँ,तो जल कर भी खुशबु की तरह बिखरेंगी ,ये तेरी यादें …….

आज बिन मौसम की जिद्दी बारिश, बरसी है
मेरे आँगन मेँ………..

मंजुला बिष्ट

मंजुला बिष्ट

बीए, बीएड होम मेकर, उदयपुर, राजस्थान