धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

युवावस्था में धार्मिक बनने से ही हम परम पद को प्राप्त कर सकते हैं: डा. जयेन्द्र आचार्य

ओ३म्

वैदिक साधन आश्रम तपोवन देहरादून के शरदुत्सव का दूसरा दिन-

 

वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के शरदुत्सव के दूसरे दिन आज 6 अक्तूबर, 2016 को ऋग्वेद पारायण यज्ञ प्रातः 6.30 बजे से यज्ञ के ब्रह्मा आचार्य डा. जयेन्द्र जी के निर्देशन एवं गुरुकुल पौंधा, देहरादून के दो ब्रह्मचारियों श्री ओम्प्रकाश और सुखदेव जी के वेद मं़त्रोच्चार की मधुर ध्वनि से सम्पन्न किया गया है। इससे पूर्व प्रातः 5 बजे से साधको को योग साधना, ध्यान व आसन आदि का प्रशिक्षण एवं अभ्यास कराया गया। यज्ञोपरान्त लोगों ने प्रातराश लिया और उसके बाद आश्रम द्वारा संचालित तपोवन विद्या निकेतन जूनियर हाईस्कूल का वार्षिकोत्सव सोल्लास सम्पन्न हुआ।

 

यज्ञ में ब्रह्मा की वेदी से अपना उपदेश करते हुए डा. जयेन्द्र आचार्य जी ने कहा कि वेद में किसी सम्प्रदाय विशेष की बात नहीं कही गई है और न ही किसी सम्प्रदाय, मत व पन्थ का उसमें कहीं उल्लेख हुआ है। वेदों में संसार के सभी मनुष्यों को ‘हे मनुष्यों’ कह कर सम्बोधित किया गया है। वेदों में सबके कल्याण की प्रार्थना है तथा किसी के साथ पक्षपात जैसी बात कहीं नहीं है। वेदों के अनुसार जो मनुष्य सत्संग करते हैं वह आंखों से दीखने वाले भौतिक पदार्थों की भांति ईश्वर को भी देखते हैं। परमात्मा परम पद धारी है। मनुष्य परमात्मा को भूलकर माया के चक्कर काटता रहता है। जागृति आने से पूर्व अवसर हाथ से निकल जाते हैं।

 

डा. जयेन्द्र आचार्य ने कहा कि वेदों के ऋषियों व विद्वानों की शिक्षायें हमारे लिए अनुकरणीय हैं।  युवावस्था से ही मनुष्य को परम धार्मिक बनना चाहिये तभी ईश्वर के परम पद को प्राप्त कर सकते हैं। परमात्मा हमारी माता है और वह सर्वत्र विद्यमान है। हम ही अपनी इस मां को भूले रहते हैं। इस भूलने के कारण हम परमात्मा की कृपा से वंचित भी रहते हैं। श्री जयेन्द्र जी ने कहा कि हमें परमात्मा से पहले अपने आप को खोजना है। यदि हम खुद की खोज कर लेंगे तो परमात्मा को भी खोज सकेंगे। उन्होंने कहा कि हमें अपने शरीर रुपी साधन से अपनी आत्मा को अलंकृत करना है। सत्यार्थ प्रकाश में एक स्थान पर आत्मा को निराकार भी लिखा है। सूक्ष्म सत्ता का रुप होता है। आत्मा को कोई आज तक देख नहीं पाया है। आत्मा अभौतिक है अतः कोई उसे देख नहीं सकता। आत्मा निराकार जैसा है। निराकार से निराकार का मिलन थोड़ा कठिन है। आत्मा को ईश्वर की प्रार्थना और उपासना से अलंकृत कर सकते हैं। परमात्मा को छोड़कर अन्य की स्तुति नहीं करनी चाहिये। आत्मा को अलंकृत करने के लिए ईश्वर की स्तुति करनी चाहिये। उन्होंने कहा कि आत्मा को अलंकृत करने के लिए अपने अच्छे पदार्थों की आहुति अग्निदेव को देनी चाहिये। महात्मा बुद्ध की शिक्षा का उल्लेख कर उसका समर्थन करते हुए आपने कहा कि गरीबी को दूर करने के लिए दान किया करो। उन्होंने कहा कि यह मनुष्य की गलतफहमी है कि उसके पास कुछ नहीं है। हम सबके पास खजाना ही खजाना है। हम अपनी वाणी से किसी की प्रशंसा करके उसके चेहरे पर मुस्कान ला सकते हैं। उन्होंने कहा कि महात्मा बुद्ध के अनुसार ऐसे कार्य भी दान कहलाते हैं। विद्वान वक्ता ने कहा कि परमात्मा परम पवित्र है। यज्ञ आदि कर्मों को करके हम भी पवित्र हो जाते हैं। यज्ञ में मंत्रों को सुनने से आत्मा का श्रृगांर होता है। वेद मंत्रों को सुनने से आत्मा संवरती है। यज्ञ की पूर्णाहुति के बाद यज्ञ समाप्त हुआ।

 

यज्ञ के बाद आर्य भजनोपदेशक श्री कुलदीप आर्य जी का एक भजन हुआ जिसके बोल थे ‘उस प्रभु की है कृपा बड़ी, याद कर ले घड़ी  दो घड़ी। घंटी बज जाये कब कूच की मौत हर दम सिरहाने खड़ी।। किन्हीं शुभ कर्मों का फल है ये तुझे मानव का चोला मिला। जो आया है जायेगा वो बन्द होगा न ये सिलसिला। कहती वेद की एक एक कड़ी। याद कर ले घड़ी दो घड़ी।।’ भजन सुनते हुए ऐसा प्रतीत हुआ कि श्री कुलदीप आर्य ने यह भजन आज डा. धर्मवीर जी, प्रधान, परोपकारिणी सभा के प्रातः निधन के समाचार को सुनकर उन्हें श्रद्धांजलि के रुप में प्रस्तुत किया था। भजन के बाद आचार्य डा. जयेन्द्र जी ने डा. धर्मवीर जी को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि डा. धर्मवीर जी जैसे विद्वान पैदा होने अब बंद हो गये हैं। वह वेदों की व्याकरण के सूर्य थे। डा. धर्मवीर जी दर्शनों व अन्य शास्त्रों के भी गम्भीर विद्वान थे। उन्होंने कहा जिस व्यक्ति में समग्र पाण्डित्य विद्यमान था उसका नाम डा. धर्मवीर था। उन्होंने कहा कि आर्यजगत की उनके निधन से जो क्षति हुई है उसकी कल्पना करना भी कठिन है। परमात्मा की व्यवस्था के साामने हम सब नतमस्तक हैं। उन्होंने सबकी ओर से ईश्वर से दिवंगत आत्मा को शान्ति और सदगति प्रदान करने की प्रार्थना की और 2 मिनट का मौन रखकर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।

 

यज्ञशाला में यज्ञ की समाप्ति, आचार्य जी के उपदेश और श्री कुलदीप आर्य सहित डा. धर्मवीर जी को श्रद्धांजलि के बाद का कार्यक्रम आश्रम के नये भव्य सभागार में हुआ। आश्रम की ओर से अपने परिसर में एक तपोवन विद्या निकेतन जूनियर हाई स्कूल संचालित किया जाता है। आज इस स्कूल का वार्षिकोत्सव मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि श्री योगराज अरोड़ा थे। पूर्वान्ह 10.35 बजे दीप प्रज्जवन से कार्यक्रम आरम्भ हुआ। दीप प्रज्जवलन करते हुए विद्यालय की तीन बालिकाओं ने एक गीत प्रस्तुत किया। अनन्तर मुख्य अतिथि का शाल व एक चित्र भेंट कर स्वागत किया गया। विद्यालय की प्रधानाचार्या श्रीमती उषा नेगी जी ने मुख्य अतिथि जी का परिचय दिया। उन्होंने बताया कि विद्यालय सन् 1979 में स्थापित किया गया था तथा विद्यालय का भवन सन् 1981 में बना था। विद्यालय की स्थापना का उद्देश्य वैदिक धर्म व संस्कृति सहित आधुनिक विषयों का भी बच्चों को ज्ञान देना था। उन्होंने बताया कि विद्यालय के पास सीमित साधन होने पर भी पढ़ाई में किसी प्रकार की बाधा नहीं आने दी गई। हमारे सभी प्रयास पूरे उत्साह से किये जाते हैं। हमारा विद्यालय आदर्श विद्यालय है। अनेक महानुभाव निर्धन बच्चों का शुल्क वहन करते हैं। उत्सव आरम्भ हुआ और आरम्भ में प्राचीन गुरु-शिष्य पर आधारित एक नाटक द्वारा आध्यात्मिक विद्या के अध्ययन के लिए संवाद द्वारा शिष्य बनने की योग्यता के प्राचीन उदाहरण को प्रस्तुत किया गया। इसके बाद छोटे बच्चों का एक कार्यक्रम हुआ जिसमें उन्होंने एक गीत की धुन पर नृत्य किया। इस नृत्य में लगभग ढाई व तीन साल के बच्चों ने भी इतना प्रौढ़ प्रदर्शन किया कि श्रोता भाव विभोर हो उठे। दो कन्याओं ने कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया जिसका स्तर भी अच्छा था। मुख्य अतिथि को दिल्ली लौटना था अतः बीच में उनका सम्बोधन कराया गया। उन्होंने कहा कि आपका विद्यालय उन्नति करे। सभी बच्चे जीवन में सफलतायें प्राप्त करें। उन्होंने विद्यालय की अध्यापिकाओं एवं बच्चों सहित सभी को अपनी शुभकामनायें दीं। इसके बाद द्रोणाचार्य और अर्जुन आदि शिष्यों के मध्य अंग्रेजी में संवाद पर आधारित एक नाटक की प्रस्तुति की गई। अनन्तर कक्षा 2 व 3 की 13 छोटी बच्चियों ने लाल रंग की मनमोहक वेशभूषा में एक गीत की मधुर धुन पर नृत्य प्रस्तुत किया। एक कार्यक्रम में लगभग 30 बच्चों द्वारा शारीरिक व्यायाम का भव्य प्रदर्शन किया। इसके बाद कार्यक्रम में उपस्थित आर्य विद्वान डा. जयेन्द्र सरस्वती को आशीर्वाद के लिए आमत्रित किया गया।

 

अपने उपदेश के आरम्भ में विद्वान वक्ता ने कहा कि यदि आप परमात्मा के दर्शन करना चाहते हैं तो बच्चे बन जायें। यदि बच्चों के समान आपका मन निर्मल व पवित्र हो जायेगा तो आपको परमात्मा मिल जायेगा। बच्चे भगवान की मूरत हैं। बच्चों की इस मूरत में जो रंग भरता है वह गुरू होता है। वेदारम्भ संस्कार की चर्चा कर उन्होंने कहा कि समिधाओं को घृत में डूबो कर अग्नि में डालने से वह प्रकाशित होकर स्वयं अग्निस्वरूप हो जाती हैं। उसी प्रकार बालक भी समिधा की तरह होता है। डा. जयेन्द्र आचार्य ने कहा कि गुरु के पास जाने पर बच्चों का जीवन भी ज्ञान की अग्नि के समान प्रकाशित हो जाता है। मनुष्य को जीवन भर विद्यार्थी बन कर सीखना चाहिये। उन्होंने इस प्रश्न कि एक ही कक्षा में एक बच्चे के 95 प्रतिशत और एक के 40 प्रतिशत अंकों प्रज्ञपत होने का कारण क्या है, इसका उत्तर देते हुए कहा कि इसका कारण बच्चों की एकाग्रता अर्थात् उनका कनसनट्रेशन और फोकस होता है। उन्होंने कहा कि जो बच्चे अपने गुरुओं को सम्मान देते हैं उनका जीवन ज्ञान के अमृत से भर जाता है। इसका उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि लोटा सीधा हो तो नदी का जल उसमें नहीं भरता परन्तु यदि उसे तिरछा या उलटा कर दिया जाये तो वह जल से भर जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य में झुकने का गुण होना चाहिये। विद्वान वक्ता ने कहा कि जो बच्चा सीखना चाहता है उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती। उन्होंने इसका एक मार्मिक उदाहरण देते हुए गुरु द्रोणाचार्य और अर्जुन का वृक्षों के पत्तों को बींधने का दृष्टान्त प्रस्तुत किया।

 

आचार्य जी के उपदेश व आशीर्वचनों के पश्चात अंग्रेजी का एक समूह गान हुआ। अनन्तर योगासनों का भव्य प्रदर्शन हुआ। बालिकाओं ने एक प्रस्तुति में डांडियां नृत्य किया जो बहुत भव्य था। लेजियम नृत्य भी बच्चों के द्वारा किया गया। गुजरात के एक मंगल नृत्य की प्रस्तुति भी हुई तथा एक सामूहिक देशभक्ति का गीत हुआ। इसके बाद कक्षा में प्रथम, द्वितीय व तृतीय आने वाले बच्चों को स्वामी दिव्यानन्द जी, आश्रम के प्रधान एवं अन्य गणमान्य लोगों के द्वारा प्रमाण पत्र वितरित किये गये जिसमें हमें भी सहयोग के लिए कहा गया। विद्यालय की सफाई कर्मचारी और अनेक अध्यापिकाओं व कर्मचारियों को अनेक अच्छे कार्यों व उपलब्धियों के लिए सम्मानित किया गया। कार्यक्रम की समाप्ति पर आश्रम के प्रधान यशस्वी श्री दर्शन कुमार अग्निहोत्री जी ने अपने सम्बोधन में सभी अध्यापिकाओं व आयोजन में उपस्थित लोगों का धन्यवाद किया। आपने बच्चों व अध्यापिकाओं के लिए दान की घोषणा भी की। आश्रम के मंत्री ने अपने सम्बोधन में कहा कि विद्यालय की निरन्तर प्रगति को देखकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। उन्नति का श्रेय अध्यापिकाओं को देते हुए उन्होंने कहा कि विद्यालय के बच्चे अन्य विद्यालयों की तुलना में अच्छे हैं। उन्होंने अध्यापिकाओं और बच्चों को विशेष रूप से और प्रयास करने के लिए कहा। मंत्री जी ने आश्रम के इतिहास के मुख्य बिन्दुओं को रेखांकित करते हुए आश्रम की महत्ता को बताया। इसी के साथ विद्यालय के वार्षिकोत्सव का आयोजन समाप्त हुआ।

 

आश्रम का अपरान्ह का कार्यक्रम 3.30 बजे आरम्भ हुआ। ऋग्वेद पारायण यज्ञ जारी रहा। यज्ञ के अनन्तर आचार्य डा. जयेन्द्र जी के उपदेश होते रहे। श्री कुलदीप आर्य के मनोहर भजन हुए। सायं 7.30 बजे से आरम्भ सत्र के आरम्भ में सहारनपुर के आर्य भजनोपदेशक श्री आजाद लहरी के दो भजन हुए। पहला भजन था ‘रोम रोम में ओम् रमा है ओ भोले नादान ओम् का जाप किया कर’। वैराग्य पर भी आपने एक भजन ‘जब ये संसार तुमको तन्हा छोड़ दे, तो तुम उस प्रभु की शरण में चले आइये।’ प्रस्तुत किया। इसके बाद आर्य भजनोपदेशक श्री रुहेल सिह जी के भजन हुए। श्री रुहेल सिंह के बाद श्री कुलदीप आर्य जी ने अनेक भजन प्रस्तुत किये। एक भजन के शब्द थे ‘दुनियां में महापुरुष तो बहुत हुए पर ऋषि जैसा कोई न हुआ’। एक अन्य भजन के शब्द थे ‘सच्चे शिव की खातिर जिसने छोड़ा टंकारा, आंधी तूफानों में था उसका केवल ओ३म् सहारा।’ इसके बाद प्रस्तुत भजन था ‘न बाबा न बाबा न भोला शंकर बोलता। लगी है लगन आज यही मेरे मन में, भोले भगवान के करुंगा दर्शन मैं। बिगड़ी बनेगी मेरी बात, न बाबा न बाबा न भोला शंकर बोलता।’ इनके बाद श्री प्रेमदेव पीयूष का प्रवचन हुआ। उन्होंने कहा कि सत्य बोला जाता और धर्म का आचरण किया जाता है। जो सत्य बोलता और धर्म का आचरण करता है उसकी उन्नति होती है। वक्ता ने सत्यं, शिवं व सुन्दरम् की चर्चा कर इस पर प्रकाश डाला। अपने वक्तव्य की समाप्ति पर आपने कहा कि तुम जलते हुए दीपक बनों। उन्होंने कहा कि आप बोलना भी सीखिये जिससे ऋषि दयानन्द के अमीचन्द जी के जीवन को सन्मार्ग में लाने की तरह हमारी वाणी का भी किसी अच्छे कार्य में सदुपयोग हो सके।

 

कार्यक्रम के अन्त में आचार्य जयेन्द्र जी का प्रवचन हुआ। उन्होंने कहा कि भक्ति का सही स्वरुप वेदों व वेद मन्त्रों में मिलता है। भक्ति करने वाले को ईश्वर की कृपा का प्रसाद मिलता है। उन्होंने कहा कि जो सामथ्र्य वेदों में व इसके मन्त्रों में है वह किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं है। आप ने पाप की चर्चा कर बताया कि पाप का स्थान मन में होता है। पापी मनुष्य को मुक्ति नहीं मिलती। उन्होंने कहा कि महर्षि दयानन्द जी ने जो कार्य किया वह साधारण कार्य नहीं था। सत्संग में नींद आने का कारण बताते हुए आपने कहा कि सत्संग फूलों की सेज के समान होने पर सत्संग में नींद आती है। आचार्य जी ने कहा कि अज्ञानी मनुष्य का नाश होता है। उसे नाश से कोई बचा नहीं सकता। पाप में मनुष्य के गिरने का कारण उन्होंने अज्ञान को बताया। अज्ञान के कारण ही मनुष्य पाप के रास्ते पर चलते हैं। धर्म ज्ञानपूर्वक सत्य पथ पर चलने को कहते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म का पालन करना दयानन्द जी के जीवन से सीखो। उन्होंने आगे कहा कि यदि तुम बच्चों को गायत्री व अन्य कोई वेद मन्त्र सीखा दोगे तो उसके धर्म की रक्षा हो जायेगी। विद्वान वक्ता ने कहा कि आज भी पढ़े लिखे अधिकांश लोगों में अज्ञान है जिस कारण वह पाप के गर्त में जाते हैं। ज्ञान प्राप्त कर हम पाप से बच सकते हैं। उन्होंने कहा कि कि वेद, आर्यसमाज और ऋषि दयानन्द को कभी मत छोड़ना क्योंकि यह तीनों आपका मार्ग प्रशस्त करेंगे। आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय की उन्होंने प्रेरणा की और कहा कि सत्संग में भी जाया करें जिससे आप पाप से बचे रहेंगे। आचार्य जी ने कहा कि दिल वा हृदय से शुभ संकल्प अवश्य लें और आजीवन उसका पालन करें। आपका लिया एक अच्छा संकल्प आपके जीवन को पाप से खाली करता जायेगा। हमारे जीवन में अच्छा संकल्प न लेने से पूर्णता नही आती। दयानंद ने भी सच्चे शिव की प्राप्ति का संकल्प लिया था तथा अनेक बाधायें आने पर भी उन्होंने उसे छोड़ा नहीं। वह अपने संकल्प को पूरा करने में सफल रहे। उन्होंने कहा कि दयानन्द जी के संकल्प का परिणाम ही उनका भावी जीवन था। विद्वान वक्ता ने कहा कि पाप से दूर रहने के लिए मन को व्यस्त रखें, उसे खाली न रहने दें। उन्होंने कहा कि मन में पाप आये तो कहें कि हे मेरे मन के पाप, तू मेरा पीछा छोड़। दूर कहीं वन में चला जा। मन को पापों से मुक्त करने के लिए विद्वान वक्ता ने ईश्वर प्रणिधान के रास्ते पर चलने का परामर्श दिया। प्रवचन समाप्त हुआ। संचालन करते हुए श्री शैलेश मुनि सत्यार्थी जी ने भी अनेक प्रेरक घटनायें प्रस्तुत की। शान्ति पाठ और जय घोषों से रात्रि सत्र का अवसान हुआ।

 

-मनमोहन कुमार आर्य