कविता : कहो क्या ऐसी कोई प्रीत रीत
सज धज वो डोली आई थी
लाखों अरमान संग लायी थी
एक छोर लहू को रख सहसा
एक डोर बंधी चली आई थी
कहो क्या ऐसी कोई प्रीत रीत
तुमने भी कभी निभाई थी
एक माटी से दूजी आकर
खुद मुरझाई जड़ें जमाई थी
एक उपवन महकी खिली बहुत
एक मधुबन लगी बनाये थी
बाबुल प्यारी माँ की लाडो
जो तनिक हवा कुम्हलाए थी
झुनक पुलक नव घर आँगन
सतहों से गर्द हटाए थी
एक खटके पर जगते सोते
प्रतिपल अंतस दहशत जीते
बसी नए देश रची नए भेस
जित ममता समता परछाई थी
कच्चे धागों की आड़ लपेटे
अनगिन अखण्ड ताने बाने
खींचे सब अपनी ओर उसे
उसको ही थे सब सुलझाने
दो हाथों जिसने एक समय
सौ मांगों वफ़ा निभाई थी
जन्म जन्म के रिश्तों पर
विश्वास हृदय जीती हो जो
समदृष्टि करो देखो उसको
हर दर्द सहज पीती है वो
दूजे के चेहरे खिले देख
जो रोम रोम मुस्काई थी
शमन दमन चाहत करते
सहज विषम विष भी पीकर
रही रात जगी सारी फिर भी
ममता उठ पड़ी कमर कसकर
थे हाथ घाव फिर भी जिसने
वत्सल मन रोटी पकाई थी
घर बड़ा मिला या फिर छोटा
माना उसको ही सुख का गाँव
रही चादर छोटी या लम्बी
रखे भीतर भीतर जिसने पांव
कड़वे फल चख मीठे परसे
शबरी सी भक्ति जताई थी
संसार रचा जिसने जप तप
परिवार चलाया वर्षों तक
दायित्वों के एवज जिसने
सरका दी अपनी थाली तक
अधिकार मांग करते जिसको
बस खाली झोली दिखाई थी
दो कुल जो अपनी कही गयी
पर फिर भी सुना परायी थी
कहो क्या ऐसी कोई प्रीत रीत
तुमने भी कभी निभाई थी
— प्रियंवदा