प्रेम
सुवर्णा गोरी, लंबी, बड़ी बड़ी आँखों वाली, एक सुन्दर, चंचल, भोली सी और बहुत प्यारी लड़की है।
उसकी आवाज में झरनों की झनकार है, उसके अंदाज में हवा की चंचलता है।
हाँ, प्यारी !प्यारी इसलिए भी की बहुत भोली है। उसके सवाल जवाब बड़े रोचक होते हैं। एक दिन अपनी मां से पूछती है, माँ– मुझे प्रेम का गुण सिखा दो। माँ बुरी तरह चौंक जाती है और बड़ी गंभीरता से सुवर्णा को ऊपर से नीचे तक देखती है।
सुवर्णा माँ से –क्या हुआ माँ मैंने कुछ पूछा तुमसे, तुम सोचती होगी की तुम्हीं से क्यों पूछ रही हूँ, तुम मेरी पहली सखी हो, और तुम्हें जीवन का लंबा अनुभव है इसीलिए तुमसे पूछ रही हूँ।
माँ सुवर्णा से —सुवी वो सब ठीक है लेकिन स्त्री जाति को मर्यादा का भी ख्याल रखना चाहिए।
सुवर्णा—-वो कुछ मैं नहीं जानती। बस तुम मुझे उत्तर दो।
माँ—-अजीब लड़की है। लेकिन तुम ये सवाल पूछ ही क्यों रही हो। अचरज तो मुझे इस बात का है। तुम्हारी रूचि तो अनेक विषयों में है उन पर सवाल करो, ये प्रेम ही मुख्य विषय क्यों है।
सुवर्णा—बस है। तुम उत्तर दो।
माँ —ठीक है पहले तू मुझे कुछ पुड़िया बेल कर दे मुझे जल्दी खाना बनाना है मेरी कुछ मदद कर तब बताऊँगी।
सुवर्णा—बताओगी न !!पक्का ! तभी पूरियां बेलूंगी और तभी तुम्हारी मदद करूँगी। नहीं तो आज से तुम्हारा सब काम बंद।
माँ–(मन ही मन विचार करती हुई) अजीब लड़की है, अजीब तरह के सवाल करती है। हे प्रभु जब तक ये पूरियां बेले तब तक इसके मन से ये बात मिटा देना नहीं तो बड़ी मुसीबत हो जायेगी। ये प्रेम की गीता का रहस्य क्यों अभी से समझना चाहती है। हे ईश्वर कुछ अपना जादू चला देना।
सुवर्णा माँ से—-तुम जो सोच रही हो न मन ही मन में,
मां–हाँ तो
सुवर्णा–तो ये की मुझे सब पता है कि तुम भगवान को मना रही होगी की ये सवाल मैं भूल जाऊँ।
माँ– (अचरज से) नहीं सुवी ऐसा बिल्कुल नहीं है मैं तुम्हें बताऊँगी, क्यों नही बताऊँगी ! बताओ भला!!!!
सुवर्णा—–तो फिर अब बता ही डालो !
माँ सुवर्णा से—अच्छा ये बता तेरे दिमाग में ये सवाल आया कैसे,हर बात का आधार होता है, तेरे इस प्रश्न का कुछ न कुछ आधार तो है सुवी, तू कुछ छुपा रही है और बताना भी चाह रही है लेकिन बता भी नहीं पा रही।
सुवर्णा—हाँ मेरे प्रश्न का आधार है, तुम डाटोगी तो नहीं, तो फिर तुम्हें बताऊँगी नहीं तो नहीं !
माँ —-(मन ही मन सोचते हुए, अगर मेरा संदेह सही है तो सुवी जरूर मुझे किसी लड़के के विषय में ही बताएगी, मेरा इस पर सख्ती करना व्यर्थ होगा, अच्छा होगा की मैं इसे गुण दोष बताऊं और इसकी समझ को परिपक्व बनाने की कोशिश करूँ) अच्छा बाबा नहीं डाटूंगी, बता तो सही —-
सुवर्णा माँ से—-मुझे हृतेश बहुत अच्छा लगता है माँ, मैंने देखा है वो मुझे चोरी चोरी देखता है, लेकिन वो ये नहीं जानता की मैं भी उसे चोरी चोरी देखती हूँ।
मैं चाहती हूँ की वो मुझसे बात करे और हम साथ साथ घूमे फिरे।
माँ सुवर्णा से—- सुवी उस से क्या होगा। तूने मुझसे शायद इसीलिए पूछा है कि प्रेम का गुण क्या है तो सुन———
प्रेम का कोई गुण नहीं है प्रेम निर्गुण है,विशुद्ध है, प्रेम जरूरत नहीं है, और जरूरत प्रेम नहीं है।
सुवर्णा मन से—-तुम क्या कहना चाहती हो? प्रेम जरूरत नहीं है और जरूरत प्रेम नहीं है मैं नहीं समझी —-
माँ—-मैने जो कहा उसमे समझने को है ही क्या।
सुवर्णा —-तुम कहना चाहती हो की यदि मुझे हृतेश से प्रेम है तो मेरे या उसके लिए हम दोनों का साथ मायने नहीं रखता !
माँ—सवाल तो ये है कि प्रेम है भी या नहीं, या सिर्फ आकर्षण है, जो की बातचीत साथ घूमने फिरने के बाद खत्म हो जायेगा, क्योंकि ज़िन्दगी तो जरूरतों का दूसरा नाम है।
सुवर्णा—-मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ, तुम और बाबा के बीच प्रेम नहीं है क्या ! प्रेम की बजह ही से तो तुम और बाबा साथ हो।
माँ—नहीं सुवी, जरूरतों के आधार पर प्रेम निर्धारित होता है, प्रेम के आधार पर जरूरतें नहीं।
सुवर्णा—- मतलव तुम्हारी और बाबा की शादी एक जरूरत है प्रेम नहीं !
माँ—–जरूरत पहले प्रेम बाद में —
सूवर्णा —-तुम कैसी पहेलियां बुझा रही हो साफ साफ बताओ, और एक और बात मुझे तुम्हारी ये बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगी की जरूरत पहले है प्रेम बाद की बात है।
माँ—-बात यही है सामाजिक सत्य यही है, नहीं तो क्यों तलाक होते हैं क्यों नहीं विवाह टिक पाते! विवाह तो टिक जाएं प्रेम भी टिक जाये लेकिन जरूरतें विवाह को टिकने नहीं देतीं।
विवाह की पहली जरूरत ही शारीरिक जरूरत है, फिर पारिवारिक और सामाजिक, इन सब के साथ प्रेम भी घिसटता जाता है जब तक घिसट पाये और अंततः प्रेम की मृत्यु तो निश्चित ही है।
सूवर्णा—मतलब तुम बाबा की जरूरत हो, वो तुम्हें प्यार नहीं करते, हैं न !!तुम यही तो बताना चाह रही हो मुझे !!
माँ—सुवी बात को समझो, भड़को नहीं, मैं और तेरे बाबा एक दूसरे से प्यार करते हैं, लेकिन फिर वो ही बात आ जाती है कि प्रेम जरूरत नहीं है, अगर मैं या दूसरी औरतें सामाजिक पारिवारिक, और व्यक्तिगत जरूरतों को पूरा न करती तो कबकी वैवाहिक संस्था से अलग कर दी जाती।
जो सच है वो है उसे स्वीकारो।
सूवर्णा—नहीं,मैं तुम्हारा या समाज का ये सच नहीं मानती, मैं प्रेम को ही सबसे ऊपर मानती हूँ, प्रेम की ही बजह से रिश्ते हैं समाज है।
माँ—ठीक है सुवी तू प्रेम को ही सबसे ऊपर रख और प्रेम अगर सबसे ऊपर है तो ये छटपटाहट क्यों ?तसल्ली से प्रेम को परखने की कोशिश तो कर। प्रेम का तो गुण ही स्थाई है। अगर तुझे या हृतेश को तुझसे प्रेम होगा तो वो टिकेगा, सालों साल टिका रहेगा बिना जरूरतों के भी, बिना किसी साथ या वार्तालाप के भी और यदि आकर्षण होगा तो खत्म हो जायेगा।
अच्छा होगा की तू प्रेम के साथ स्वावलंबी होने की सोचे, जो तू चाह रही है वो प्रेम नहीं भी हो सकता है और यदि है तो वो अविरल जल की धारा है जो सतत बहेगी ही बहेगी।
सूवर्णा माँ से—तुम्हारी बात मुझे समझ में आ रही है, तुम सही ही तो कह रही हो की प्रेम है तो ये छटपटाहट क्यों ?? प्रेम सहज और सरल भी नहीं है, तो क्यों न इसको परखा ही जाये।
तुम सही कहती हो कि प्रेम निर्गुण है प्रेम का कोई गुण नहीं है,प्रेम जरूरत नहीं वल्कि अविरल निर्मल और सतत जल है और यदि ये सत्य है तो इसे पाने का प्रयास क्यों करना इसे मुझे खुद तक आते हुए देखना होगा।
तुमने मेरी आज कितनी उलझन सुलझा दी मेरी प्यारी माँ —-
देखो पंछी अपने नीड़ की तरफ बढ़ रहे हैं और शाम भी घिरके आ गयी है, चलो तुम कोई राग छेड़ो और मैं सितार छेडूंगी ——–
दोनों गाती हैं —
प्रीत बाबरी भई बसंत में मनवा किस विधि समझाऊँ
कौन डगर है पी की नगरी मैं कहीं गिर न जाऊँ….
——————(अंशु की कलम से)