मनुष्यों द्वारा ईश्वर व जीवात्मा विषयक ज्ञान प्राप्ति की उपेक्षा क्यों?
ओ३म्
विश्व के वैज्ञानिक व अन्य धार्मिक व साम्प्रदायिक लोग आज भी ईश्वर, जीवात्मा और मूल अथवा कारण प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को नहीं जानते। न जानना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु जानने का प्रयास ही न करना और धन दौलत एकत्रित कर उससे शारीरिक सुख के साधन एकत्रित कर उनका भोग करना ही आज के मनुष्यों के जीवन का मुख्य उद्देश्य बन गया है। आज जो तथाकथित विद्वान टीवी आदि पर कथा व प्रवचन आदि करते हैं, उनका रहन सहन देख कर लगता है कि यह भी कोई साधु-संत, त्यागी व योगी पुरुष न होकर सुख व ऐश्वर्य के भोगी ही हैं। विचार करने पर यह ज्ञात होता है यह उनकी अविद्या व मिथ्या ज्ञान है। विवेक शून्य होने के कारण वह जीवन भर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के यथार्थ स्वरुप के ज्ञान से अनभिज्ञ रहते हैं और भविष्य काल में मृत्यु को प्राप्त होकर नाना दुःख की भोग योनियों में विचरण करते हुए पशु, पक्षी व कीट पतंगों की भांति अपने मनुष्य जीवन में किये गये कर्मों का भोग करते हैं। सृष्टि की उत्पत्ति के बाद ईश्वर ने स्वयं ही मनुष्यों को इस संसार के यथार्थ ज्ञान से परिचित कराया था। परमात्मा द्वारा सृष्टि के आरम्भ में दिया गया ज्ञान ‘‘वेद” है। वेदों में ईश्वर, जीवात्मा, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सभी योनियों सहित सृष्टि व प्रकृति का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान बीज रूप में व कुछ विषयों का ज्ञान किंचित विस्तार के साथ है। ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति शब्द व सत्तायें मनुष्य की कल्पनायें नहीं अपितु ईश्वर व वेद द्वारा मनुष्य को माता-पिता व आचार्य की तरह से बतायें व जनायें गये सृष्टि विषयक प्रमुख रहस्य हैं। महाभारत काल के बाद भारत के कुछ प्रभावशाली ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य-प्रमाद के कारण वेद व इसकी सत्य व यथार्थ मान्यताओं और सिद्धान्तों का देश देशान्तर में प्रचार न होने के कारण समस्त विश्व में अविद्या का अंधकार छा गया जिसका कारण अविद्या का प्रचार प्रसार होना हुआ और आज भी संसार के लोग इस सृष्टि को यथार्थ रुप में जान नहीं सके हैं। यदि महाभारत काल के बाद वेदों का ज्ञान ब्राह्मणों व विद्वानों के आलस्य व प्रमाद के कारण विलुप्त व विकृत न हुआ होता तो संसार में सम्प्रति जितने भी अवैदिक मत वा धर्म आज प्रचलित हैं उन्हें अस्तित्व में आने की आवश्यकता ही न पड़ती अर्थात् वह आविर्भूत न होते। यह ऐसा ही है जैसे कोई व्यक्ति स्वास्थ्य के सभी नियमों का पूर्णतया पालन करे तो वह रूग्ण नहीं होता। रोग का कारण हमेशा कुपथ्य, वायु एवं जल का प्रदुषण व अशुद्ध भूमि में प्रदुषित जल व खाद से उत्पन्न विषाक्त अन्न व भोजन का सेवन ही होता है। अतः आज सारा संसार ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति के विषय मे अविद्या से ग्रस्त है। इस पर आश्चर्य यह है कि मनुष्य संसार में ऐसा लिप्त है कि उसकी जीवात्मा सत्य ज्ञान को प्राप्त करने में जागृत न होकर निद्राग्रस्त वा मरणासन्न ही दिखाई दे रही है।
ऋषि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालने पर हमें ज्ञात होता है कि उनके माता-पिता, पूर्व के कुछ पूर्वजों व उनके समाज की भी यही स्थिति थी। पिता ने उन्हें जड़ पूजा ‘शिवरात्रि’ का व्रत करने की प्रेरणा व आज्ञा दी तो उनके बताये व्रत व पूजा के लाभों को सत्य मानकर उन्होंने समस्त विधानों का पालन किया परन्तु जब कुछ चूहों को सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रतीक शिव की मूर्ति शिवलिंग पर उसकी महत्ता को दृष्टि से ओझल कर उत्पात करते देखा तो उन्हें शिवलिंग के यथार्थ ईश्वर होने में सन्देह हो गया और उन्होंने आगे का अपना व्रत व कर्मकाण्ड छोड़कर मन में सच्चे शिव वा ईश्वर को जानने व प्राप्त करने का संकल्प धारण किया। इसके बाद वह अपने जीवन में ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरुप को जानने में सफल हुए और उन्होंने ईश्वर के सच्चे स्वरुप का प्रचार व प्रसार कर सारे संसार को आलोकित भी किया। वर्तमान में व पूर्व भी सारा संसार ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानने व प्राप्त करने की उपेक्षा करता रहा है परन्तु ऋषि दयानन्द इसके अपवाद क्यों थे? यह प्रश्न अवश्य विचारणीय है। इस प्रश्न का विचार करने पर हमें ऋषि दयानन्द की आत्मा व मन पर अन्य मनुष्यों की तुलना में भिन्न प्रकार के संस्कारों का होना विदित होता है। यदि उनके संस्कार भिन्न न होते तो फिर वह अपने माता-पिता व तत्कालीन आचार्यों के अनुशासन में उनके अनुकूल व अनुरुप कार्य ही करते। उनका ईश्वर के यथार्थ स्वरुप के ज्ञान व उपासना में उपेक्षा की स्थिति के विरुद्ध विद्रोह करना और सच्चे ईश्वर व शिव की प्राप्ति के लिए माता-पिता, कुटुम्ब, इष्ट-मित्र आदि का त्याग कर सत्य के अनुसंधान में देश भर में एक स्थान से दूसरे स्थान पर आना-जाना और ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान प्राप्त करना उन्हें सामान्य मनुष्यों से पृथक कर एक श्रेष्ठ मनुष्य, महामानव, महापुरुष, जिज्ञासु, महात्मा की कोटि वाला मनुष्य सिद्ध करता है। यही कारण था कि उन्होंने सभी प्रकार के शारीरिक कष्टों का स्वेच्छा से वरण व सहन कर सत्य ज्ञान, विचार, मान्यताओं व सिद्धान्तों को जानने के लिए पुरुषार्थ व तप करने सहित ईश्वर की प्रेरणा से विद्या के स्रोत गुरु विरजानन्द सरस्वती का मथुरा में सान्निध्य प्राप्त कर उनसे अध्ययन किया और उसके परिणमस्वरुप वह विद्या व वेद ज्ञान के सरोवर में स्नान कर सके। इस विद्या को प्राप्त कर वह ईश्वर, जीवात्मा और संसार को यथार्थ रूप में जान सके। इससे पूर्व वह अनेक योग के गुरुओं के सम्पर्क में आकर उनसे योग की क्रियायें सीखकर उसका यथोचित व पूर्ण अभ्यास कर चुके थे जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार करना भी सम्मिलित है। योग में उच्च गति एवं गुरु विरजानन्द से प्राप्त विद्या से उनका ज्ञान पूर्णता को प्राप्त हो गया था। अब उनके लिए जीवन का कोई कर्तव्य शेष नहीं था। वह ईश्वर को प्राप्त कर चुके थे और सृष्टि विषयक यथार्थ व आवश्यक समस्त ज्ञान उन्हें प्राप्त हो चुका था। वह मोक्ष द्वार पर थे जिसमें प्रवेश मृत्यु होने पर ही होता है। उन्हें उसकी प्रतीक्षा करनी ही शेष थी। इस स्थिति पर विचार कर ज्ञात होता है कि ईश्वर उनसे अन्य कार्य भी कराना चाहता था। विद्या की समाप्ति पर उनके गुरु ने उन्हें प्रदत्त आध्यात्म व परा विद्या का देश व विश्व में प्रचार कर अविद्या, अज्ञान, अन्धविश्वास व मिथ्या परम्पराओं को नष्ट व दूर करने में सहयोग करने को कहा। हमें गुरु विरजानन्द की स्वामी दयानन्द जी को इस प्रेरणा व अनुरोध के पीछे ईश्वर की प्रेरणा ही दृष्टिगोचर होती है। यह सिद्धान्त भी है कि साधु, सन्त व योगी जीवन में वही कार्य करते हैं जिसकी प्रेरणा उन्हें ईश्वर का ध्यान करते हुए हुआ करती है। अतः गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य कर ऋषि दयानन्द ने देश व संसार से अविद्या व अन्धविश्वास दूर करने के लिए खण्डन-मण्डन रूपी अस्त्रों से अविद्या पर प्रहार किया जिसमें वह पूर्ण सफल हुए लगते हैं। आज भी उनका दिया हुआ ज्ञान सुलभ है जो अकाट्य एवं प्रमाणित है। यह ज्ञान उनके रचित सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय, ऋग्वेद भाष्य (सातवें मण्डल के इकसठवें सूक्त के दूसरे मंत्र तक) और यजुर्वेद भाष्य आदि ग्रन्थों सहित समस्त वेद, मनुस्मृति, दर्शन, उपनिषद, ज्योतिष के ग्रन्थ, अष्टाध्यायी-महाभाष्य ग्रन्थ, निरुक्त आदि ग्रन्थों से निर्मित समस्त वैदिक साहित्य में विद्यमान है जिसका अध्ययन कर इस संसार सहित ईश्वर व जीवात्मा का यथार्थ व निभ्र्रान्त ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर यह तथ्य प्रकाशित होते हैं कि जीवात्मा अविनाशी, अनादि, नित्य व अमर होने के कारण पूर्वजन्मों की मनुष्य योनियों में किए हुए शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए ईश्वर की कृपा से जन्म पाता रहता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूर्व कर्मों का भोग करने सहित वैदिक जीवन पद्धति के अनुसार शास्त्रों का अध्ययन कर योगाभ्यास वा ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ, पितृ-अतिथि-बलिवैश्वदेव यज्ञ करते हुए परोपकार आदि कर्मों को करना है। ऐसा जीवन व्यतीत कर ही मनुष्य परजन्म में देव कोटि का मनुष्य बन कर वैदिक रीति से साधना करते हुए मोक्ष का अधिकारी होता है। ऋषि दयानन्द व उनके प्रमुख अनुयायियों का जीवन ऋषि की मान्यता और सिद्धान्तों के अनुसार ही व्यतीत हुआ जो हमारे व समस्त विश्व के लोगों के लिए आदर्श एवं पे्ररक उदाहरण हैं। इसके विपरीत अन्य सभी जीवन शैलियों व मत-सम्प्रदायों की शरण में जाने से जीवन के लक्ष्य ‘धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष अथवा अभ्युदय व निःश्रेयस’ की प्राप्ति का होना असम्भव है। यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन होगा कि अनेकानेक सम्प्रदायों में विभाजित आज का समाज महर्षि दयानन्द की मानव व प्राणीमात्र की हितकारी विचारधारा व जीवन पद्धति के प्रचार में अपने अज्ञानमूलक विरोधों के कारण बाधक बना हुआ है जिससे मनुष्य जन्म-मरण के चक्र व बन्धनों में फंसे हुए हैं। यह बन्धन अविद्या का नाश, विद्या की उन्नति व आचरण करके ही काटे जा सकते हैं जिसका उपाय महर्षि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में बताया है। वेद व वैदिक साहित्य का अध्ययन कर भी मनुष्य महर्षि दयानन्द के द्वारा प्रचारित निष्कर्षों पर पहुंचता है। अतः संसार के सभी मनुष्यों, सम्प्रदायों व मतों को महर्षि दयानन्द की वैदिक विचारधारा में बाधक न बन कर स्वयं उसका प्रचार कर पुण्य अर्जित कर अपने जीवन को सफल करना चाहिये। इस पर बहुत कुछ लिखा व कहा जा सकता है। हम समझते हैं विद्वतगण संकेत से ही सब कुछ जान लेते हैं। और अधिक विसतार न कर इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य