नारी के पति के प्रति व्रत व कर्तव्य विषयक ईश्वर की वेदाज्ञा
ओ३म्
आज का समाज व संसार वैदिक ज्ञान व विज्ञान से कोसों दूर है। वेदों का ज्ञान न होने का अर्थ है कि मनुष्य अविद्या से ग्रस्त है तथा विवेकहीन है। स्वामी दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन कर घोषित किया था कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है। सृष्टि के आदि काल से जैमिनी ऋषि पर्यन्त व स्वामी दयानन्द की वेदों के प्रति एक समान विचार व मान्यतायें रही हैं। आज भी देश में वेदों के अनेक विद्वान हैं और सबकी वेद विषयक ऋषि दयानन्द के बनाये नियम व मान्यता में पूर्ण निष्ठा है। महाभारत काल के बाद आलस्य व प्रमाद के कारण वेदों का अध्ययन अवरुद्ध हो गया था जिससे वेद और इनका यथार्थ ज्ञान विलुप्त होकर संसार में अज्ञान छा गया। इसके परिणामस्वरूप अज्ञान के कारण अन्धविश्वास व मिथ्या मान्यताओं सहित अनेकानेक सामाजिक कुरीतियां का देश व संसार में प्रचलन हुआ। देश में विदेशी आक्रमण होने पर यह अंधविश्वास और अधिक बढ़े। कुछ लोगों, मुख्यतः वेदज्ञान शून्य पण्डितों के, निजी स्वार्थों के कारण भी समाज में अनेक मिथ्या मान्यताओं का प्रचलन हुआ जिसमें मूर्तिपूजा, जन्मना जातिवाद, फलित ज्येोतिष, मृतक श्राद्ध, सती प्रथा, बाल विवाह, अनमेल विवाह, बहु विवाह सहित विधवाओं का भीषण उत्पीड़न किया गया। यहां तक पतन हुआ कि स्त्रियों और शूद्रों के वेदाध्ययन आदि का अधिकार ही छीन लिया गया जिससे समाज में एक प्रमुख वर्ग वेद ज्ञान शून्य ब्राह्मणों व पण्डितों का एकाधिकार हो गया और समाज पतन की ओर बढ़ता रहा। इन्ही कुप्रथाओं में व्रत-उपवास आदि भी सम्मिलित हैं जो जड़़पूजा व अन्य अंधविश्वासों से पोषित परम्परायें हैं।
वेदों व वैदिक साहित्य में किन्हीं विशेष तिथियों पर भूखे रह कर व्रत व उपवास करने का विधान नहीं पाया जाता। न तो ईश्वर न अन्य कोई ऐसा चेतन व जड़ देवता है जिसे व्रत व उपवास अर्थात् दिन में एक बार भोजन न कर प्रसन्न किया जा सकता हो। व्रत कहते हैं किसी बड़े कार्य को सम्पन्न करने के लिए संकल्प को धारण करने के लिए जिससे वह संकल्प रात दिन हमारा मार्ग प्रशस्त करता रहे और वह संकल्पित कार्य शीघ्र पूरा हो सके। इसी प्रकार उपवास का अर्थ समीप वास व निवास करना होता है। ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना, जप, तप व अग्निहोत्र सहित वैदिक विद्वानों का सत्संग आदि स्वयं में ही उपवास हैं। ऐसा करते हुए मनुष्य ईश्वर का समीपस्थ अर्थात् उपवासी होता है। इन साधारण बातों की भी हमारे पौराणिक बन्धु उपेक्षा करते हैं। आजकल अनेक लोग रक्तचाप, मधुमेह, थायराइड आदि अनेक व्याधियों से ग्रस्त हैं। ऐसे में भूखे रहकर उपवास व व्रत करने के परिणाम उनके स्वास्थ्य के लिए अच्छे नही होते। अतः इस अविद्या को जितना शीघ्र हो सके, प्रत्येक स्त्री-पुरुष व मनुष्य को (मननशील व विचारशील होने के कारण) शीघ्रतम दूर करने का प्रयास करना चाहिये जिसका उपाय सत्यार्थप्रकाश सहित वेदादि ग्रन्थों का अध्ययन ही है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो अनेक जीवन व्यतीत होने पर भी अविद्या, तदाश्रित अन्धविश्वासों एवं अनुचित कृत्यों से बच नहीं सकते।
सभी प्रकार के व्रत व उपवास जिसमें किसी विशेष प्रार्थना व विषय को सम्मुख रखकर एक समय व दिन भर भूखे रहकर पौराणिक विधि से पूजा पाठ आदि किये जाते हैं, वह अनुष्ठान वैदिक ज्ञान व शास्त्रों के अनुसार कर्तव्य नहीं है। जिस परिणाम व लाभ के लिए इन्हें किया जाता है, उनके इन कृत्यों से मिलने की कोई सम्भावना नहीं रहती। भारत में सदियों से नाना प्रकार का पौराणिक कर्मकाण्ड होते हुए भी जापान के नागरिकों की औसत आयु 86 वर्ष से ऊपर है जबकि भारत में यह औसत आयु 69 वर्ष से नीचे है। भारत का स्थान विश्व में औसत आयु के टेबल में 145 वां है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हम स्वास्थ्य के मामले में वैदिक धर्म और पौराणिक मान्यताओं का पालन करते हुए भी आयु के औसत में संसार के 144 देशों से पीछे हैं। इसका एक कारण हमारे यहां कि सामाजिक व आर्थिक विषमता व गरीबों को उचित मात्रा में पौष्टिक भोजन का न मिलना भी है। हमारे वैदिक एवं पौराणिक विद्वानों को इस समस्या पर विचार करना चाहिये। संसार के दो देश अमेरिका और जापान वह देश हैं जहां क्रमशः 72,000 और 30,000 लोग 100 वर्ष की आयु से अधिक के हैं। भारत में यह संख्या दो से तीन हजार के बीच हो सकती है। संसार का सबसे अधिक आयु का मनुष्य चीन निवासी झोउ योगयांग (Zhou Youguang) है जो 13 जनवरी, 1906 को जन्मा था। इसकी वर्तमान में आयु 110 वर्ष 279 दिन है। भारत की स्थिति हमारे सामने है। कहीं न कहीं भूल व त्रुटियां अवश्य हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिये। यह विवरण हमने पाठकों की जानकारी के लिए प्रस्तुत किया है।
नारी को पति को कैसा भोजन कराना चाहिये व इससे जुड़े अनेक महत्वपूर्ण बातों का उपदेश ईश्वर ने यजुर्वेद के आठवें अध्याय के 42 व 43 वें मन्त्र में भी किया हुआ है। यजुर्वेद का 42 वां मन्त्र है ‘आजिघ्र कलशं मह्या त्वा बिशन्त्विन्दवः। पुनरूर्जा निवत्र्तस्व सा नः सहस्रं धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्माविशताद्रयिः।।’ इस मन्त्र का ऋषि दयानन्द जी द्वारा हिन्दी में किया गया पदार्थ इस प्रकार है। पदार्थः-हे (महि) प्रशंसनीय गुणवाली स्त्री ! जो तू (उरुधारा) विद्या और अच्छी अच्छी शिक्षाओं को अत्यन्त धारण करने (प्यस्वती) प्रशंसित अन्न और जल रखने वाली है, वह गृहाश्रम के शुभ कामों में (कलशम्) नवीन घट का (आजिघ्र) आघ्राण कर अर्थात् उस को जल से पूर्ण कर उस की उत्तम सुगन्धि को प्राप्त हो (पुनः) फिर (त्वा) तुझे (सहस्रम्) असंख्यात (इन्दवः) सोम आदि ओषधियों के रस (आविशन्तु) प्राप्त हों जिस से तू दुःख से (निवर्तस्व) दूर रहे अर्थात् कभी तुझ को दुःख न प्राप्त हो। तू (ऊर्जा) पराक्रम से (नः) हम को (धुस्व) परिपूर्ण कर (पुनः) पीछे (मा) मुझे (रयिः) धन (आविशतात्) प्राप्त हो। इस मन्त्र का भावार्थ है–विद्वान् स्त्रियों को योग्य है कि अच्छी परीक्षा किए हुए पदार्थ को जैसे आप खायें वैसे ही अपने पति को भी खिलावें कि जिस से बुद्धि बल और विद्या की वृद्धि हो और धानदि पदार्थों को भी बढ़ाती रहें। यजुर्वेद के अगले 8/43 मन्त्र का भावार्थ इस प्रकार है-‘जो विद्वानों से शिक्षा पाई हुई स्त्री हो वह अपने अपने पति और अन्य सब स्त्रियों को यथायोग्य उत्तम कम्र्म सिखलावें जिससे (उनके पति व समाज की स्त्रियां) किसी तरह के अधम्र्म की ओर न डिगें। वे दोनों स्त्री पुरुष विद्या की वृद्धि और बालाकों तथा कन्याओं को शिक्षा किया करें।’
ऋषि दयानन्द जी के उपर्युक्त मन्त्रार्थ के प्रकाश में हम पौराणिक बन्धुओं से यह कहना चाहते हैं कि उन्हें शरीर शास्त्री चिकित्सों व वेद विदुषी स्त्रियों से अपने व अपने परिवार के भोजन आदि का जानकारी व ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और भिन्न-भिन्न तिथियों व पर्वों पर व्रत व उपवासों से बचना चाहिये। ईश्वर एक है और उसकी पूजा व उपासना कहीं बाहर जाकर करने की आवश्यकता नहीं है अपितु घर पर ही सन्ध्या व यज्ञ करके सम्पन्न की जा सकती है। यही ईश्वर व हमारे प्राचीन ऋषियों का विधान है। इसकी विधि के लिए आर्यसमाज से सन्ध्या व अग्निहोत्र यज्ञ की पुस्तक प्राप्त की जा सकती है और अपने जीवन को स्वास्थ्य के नियमों व ईश्वरोपासना करते हुए सुखी, सम्पन्न, समृद्ध और दीर्घायु बनाया जा सकता है। हमने यह विचार सामाजिक हित की भावना से प्रस्तुत किये हैं। आशा है कि पाठक इसे पसन्द करेंगे और अपनी प्रतिक्रियाओं से अवगत करायेंगे।
— मनमोहन कुमार आर्य