बलिवैश्वदेव महायज्ञ के उद्देश्य, विधि एवं होने वाले लाभों पर विचार
ओ३म्
आर्यों के पांच महायज्ञों में एक महायज्ञ ‘बलिवैश्वदेव यज्ञ’ भी है जिसका विधान मनुस्मृति के श्लोक 3/84 में उपलब्ध होता है। श्लोक है ‘वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्।।’ ऋषि दयानन्द सरस्वती जी इस श्लोक को पंचमहायज्ञ विधि में प्रस्तुत कर इसका अर्थ करते हुए कहते हैं कि अब चैथे बलिवैश्वदेव (यज्ञ) की विधि लिखी जाती है। जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार को छोड़कर घृतमिष्टयुक्त अन्न जो कुछ पाकशाला में सिद्ध हो, उसको दिव्यगुणों के अर्थ पाकाग्नि में विधिपूर्वक नित्य होम करें। इसके बाद उन्होंने बलिवैश्वदेव यज्ञ करने के प्रमाण प्रस्तुत करते हुए अर्थवेद काण्ड 19/55/7 तथा यजुर्वेद के 19/39 मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके भाषार्थ दिये हैं। हम यहां इन दोनों मंत्रों के ऋषिकृत भाषार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। इन मन्त्रों का उनका भाषार्थ है–हे परमेश्वर ! आपकी आज्ञा से नित्यप्रति बलिवैश्वदेव कर्म करते हुए हम लोग चक्रवर्तिराज्यलक्ष्मी, घृतदुग्धादि पुष्टिकारक पदार्थों की प्राप्ति और सम्यक् शुद्ध इच्छा से नित्य आनन्द में रहें तथा माता, पिता व आचार्य आदि की उत्तम पदार्थों से नित्य प्रीतिपूर्वक सेवा करते रहें। जैसे घोड़े के सामने बहुत से खाने वा पीने के पदार्थ धर दिये जाते हैं, वैसे सब की सेवा के लिए बहुत से उत्तम-उत्तम पदार्थ देवें जिनसे वे प्रसन्न हो के हम पर नित्य प्रसन्न रहें। हे परमगुरु अग्नि परमेश्वर ! आप और आपकी आज्ञा से विरुद्ध व्यवहारों में हम लोग कभी प्रवेश न करें, और अन्याय से किसी प्राणी को पीड़ा न पहुंचावें, किन्तु सब को अपना मित्र और अपने को सब का मित्र समझ के परस्पर उपकार करते रहें। यजुर्वेद मन्त्र का भाषार्थ इस प्रकार है- हे जातवेद परमेश्वर ! आप सब प्रकार से मुझ को पवित्र करें। जिन (वेदभक्तों) का चित्त आप में है, तथा जो आपकी आज्ञा पालते हैं, वे विद्वान् श्रेष्ठ ज्ञानी पुरुष भी विद्यादान से मुझ को पवित्र करें। उसी प्रकार आपका दिया जो विशेष ज्ञान (वेद ज्ञान व ऋषि-मुनियों के बनाये वेदादि शास्त्र) व आपके विषय (ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव व स्वरुप विषयक ज्ञान) के ध्यान से हमारी बुद्धि पवित्र हो और संसार के सब जीव आपकी कृपा से पवित्र और आनन्दयुक्त हों।
वेद और मनुस्मृति से बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान व यज्ञकत्र्ता को होने वाले लाभों को सूचित करने के बाद ऋषि दयानन्द जी ने इस यज्ञ की 10 आहुतियों के मन्त्र दिये हैं। यह आर्य परिवारों में सर्वत्र प्रचलित हैं तथापि हम इन्हें महत्वूपर्ण जानकर इनका यह उल्लेख कर रहे हैं। बलिवैश्वदेवयज्ञ की 10 होमाहुति के मंत्र = ओमग्नये स्वाहा।।1।। ओं सोमाय स्वाहा।।2।। ओमग्नीषोमाभ्यां स्वाहा।।3।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा।।4।। ओं धन्वन्तरये स्वाहा।।5।। ओं कुह्वै स्वाहा।।6।। ओमनुमत्यै स्वाहा।।7।। ओं प्रजापतये स्वाहा।।8।। ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा।।9।। ओं स्विष्टकृते स्वाहा।।10।। ऋषि द्वारा किये इन मन्त्रों के भाषार्थ इस प्रकार हैं-अग्नि शब्द के अर्थ ज्ञानस्वरुप प्रकाशस्वरुप सब सुखों के देने वाले परमेश्वर आदि हैं। जो सब पदार्थों को उत्पन्न और पुष्ट करने से सुख देनेहारा है उसको ‘सोम’ कहते हैं। जो प्राण सब प्राणियों के जीवन का हेतु और अपान अर्थात् दुःख के नाश का हेतु है, इन दोनों को ‘अग्नीषोम’ कहते हैं। यहां संसार का प्रकाश करने वाले ईश्वर के गुण अथवा विद्वान लोगों का ‘विश्वदेव’ शब्द से ग्रहण होता है। जो जन्ममरणादि रोगों का नाश करनेहारा परमात्मा है वह ‘धन्वन्तरि’ कहाता है। जो अमावास्येष्टि का करना है, जो पौर्णमास्येष्टि वा सर्वशास्त्रप्रतिपादित परमेश्वर की चिति शक्ति है, यहां उसका ग्रहण है। जो सब जगत् का स्वामी जगदीश्वर है, वह ‘प्रजापति’ कहाता है। ईश्वर से उत्पादित अग्नि और पृथिवी की पुष्टि करने के लिए जो इष्ट सुख करनेहारा परमेश्वर है, वही ‘स्विष्टकृत्’ कहाता है। ये दश अर्थ दश मन्त्रों के हैं।
ऋषि दयानन्द जी ने दस होमाहुतियों के बाद बलिदान के मन्त्र लिखे हैं। यह मन्त्र हैं- ओं सानुगायेन्द्राय नमः।। ओं सानुगाय यमाय नमः।। ओं सानुगाय वरुणाय नमः।। ओं सानुगाय सोमाय नमः।। ओं मरुद्भ्यो नमः।। ओम् अद्भ्यो नमः।। ओं वनस्पतिभ्यो नमः।। ओं श्रियै नमः।। ओं भद्रकाल्यै नमः।। ओं ब्रह्मपतये नमः।। ओं वास्तुपतये नमः।। ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः।। ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः।। ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः।। ओं सर्वात्मभूतये नमः।। ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः।। ।।1-16।। इन 16 मन्त्रों का ऋषिकृत भाषार्थ है- जो सर्वैश्वर्ययुक्त परमेश्वर और जो उसके गुण हैं, वे ‘सानुग इन्द्र’ शब्द से ग्रहण होते हैं, जो सत्य न्याय करने वाला इ्र्रश्वर और उसकी सृष्टि में सत्य न्याय के करने वाले सभासद् हैं, वे ‘सानुग यम’ शब्दार्थ से ग्रहण होते हैं। जो सब से उत्तम परमात्मा और उसके धार्मिक भक्त हैं, वे ‘सानुग वरुण’ शब्दार्थ से जानने चाहिएं। पुण्यात्माओं को आनन्दित करने वाला और जो पुण्यात्मा लोग हैं, वे ‘सानुग सोम’ शब्द से ग्रहण किये हैं। जो प्राण अर्थात् जिनके रहने से जीवन और निकलने से मरण होता है, उनको ‘मरुत्’ कहते हैं। इनकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए। जिनसे वर्षा अधिक होती और जिनके फलादि से जगत् का उपकार होता है, उसकी भी रक्षा करनी योग्य है। जो सब के सेवा करने योग्य परमात्मा है, उसकी सेवा से राज्यश्री की प्राप्ति के लिए सदा उद्योग करना चाहिए। जो कल्याण करने वाली परमात्मा की शक्ति अर्थात् सामर्थ्य है, उसका सदा आश्रय करना चाहिए। जो वेद का स्वामी ईश्वर है, उसकी प्रार्थना और उद्योग विद्या प्रचार के लिए अवश्य करना चाहिए। जो वास्तुपति गृहसम्बन्धी पदार्थों का पालन करनेहारा मनुष्य अथवा ईश्वर है, इनका सहाय सर्वत्र होना चाहिए। जो दिन में विचरने वाले प्रणियों से उपकार लेना और उनको सुख देना है, सो मनुष्य जाति का ही काम है। जो रात्रि में विचरने वाले प्राणी हैं, उनसे भी उपकार लेना और जो उनको सुख देना है, इसलिए यह प्रयोग है। सब में व्याप्त परमेश्वर की सत्ता को सदा ध्यान में रखना चाहिए। माता, पिता, आचार्य, अतिथि, पुत्र, भृत्यादिकों को भोजन कराके पश्चात् गृहस्थ को भोजनादि करना चाहिये। नमः शब्द का अर्थ यह है कि आप अभिमान रहित होके दूसरे का मान्य करना।।1-16।।
बलिवैश्वदेव यज्ञ का अन्तिम विधान करते हुए ऋषि दयानन्द जी ने ‘शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेेद् भुवि।।’ को प्रस्तुत कर लिखा है कि बलिदान के 16 मन्त्रों के बाद छः भागों को लिखते हैं। इस श्लोक का भाषार्थ करते हुए ऋषि लिखते हैं कि कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिए छः भाग अलग-अलग बांट के दे देना और उनकी प्रसन्नता सदा करना। अन्तिम वाक्य ऋषि लिखते हैं ‘यह वेद और मनुस्मृति की राति से बलिवैश्वदेव की विधि लिखी।’ इसके साथ ही बलिवैश्वदेव यज्ञ समाप्त हो जाता है।
ऋषि दयानन्द ने मनुस्मृति के श्लोक के अनुसार रसोई घर में बने घृतमिष्टान्न युक्त अन्न को पाकाग्नि में नित्य होम करने का विधान किया है। ऋषि दयानन्द के समय एवं उनसे पूर्व कालों में आजकल की तरह रसोई गैस एल.पी.जी. का प्रचलन नहीं हुआ था। आजकल पूर्व कालों के चूल्हों का स्थान इस रसोई गैसे वाले चूल्हें ने ले लिया है जिसमें घृतमिष्टान्न की आहुति देना व्यवहारिक नहीं है। इसका एक कारण गैस के जलने से उत्पन्न दुर्गन्ध से होने वाला प्रदुषण और दूसरा चूल्हें में आहुति देने से चुल्हें को होने वाली हानि है। अतः पाकाग्नि के अभाव में गृहस्थी बलिवैश्वदेव यज्ञ की आहुतियां दैनिक अग्निहोत्र के हवनकुण्ड में ही देते हैं जिसे देश, काल और परिस्थिति के अनुरुप कहा जा सकता है।
पंच महायज्ञों में इतर 4 यज्ञों में ब्रह्म, जड़ देवताओं, विद्वानों, माता-पिता, वृद्धों एवं आचार्यों का पूजन, उपासना व सत्कार आदि होता है। संसार के अन्य प्राणियों को भी यज्ञ का लाभ मिले तभी यज्ञ = श्रेष्ठतम कर्म सिद्ध व पूर्ण होगा। एतदर्थ ही बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान किया गया है जिससे मनुष्यतेर व जड़ देवों के अतिरिक्त सभी भूत-प्राणियों का सत्कार हो। इस प्रकार पंचमहायज्ञों से सभी जड़ चेतन देवताओं व प्राणियों को लाभ पहुंच जाता हैं। इसमें विद्वानों द्वारा एक युक्ति यह भी दी जाती है कि जीवात्मा अमर व अविनाशी होने के कारण ईश्वर की कृपा व व्यवस्था से शरीर रूपी वस्त्र को बदलते हुए पुनर्जन्म हो प्राप्त होता रहता है। कभी यह मनुष्य तथा कभी अन्य प्राणी योनियों में कर्मानुसार जन्म पाता है। बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान इस लिये बनाया गया है कि हम भविष्य में जब कभी किसी भी योनि में उत्पन्न क्यों न हों, हमें व अन्य सभी जीवात्माओं वा प्राणियों को इस यज्ञ के द्वारा पोषण प्राप्त होता रहे। अतः इस यज्ञ का सभी मनुष्यों द्वारा किया जाना युक्तिसंगत है। बलिवैश्वदेव यज्ञ का विवरण पढ़ने व उस पर विचार करने से यह विदित होता है कि इसका करना कर्मफल विधान के अनुसार सभी यज्ञकर्ताओं के लिए लाभकारी अवश्य होता है। आईये ! बलिवैश्वदेव यज्ञ की भावना को जानकर इस यज्ञ का नित्य सम्पादन करने का व्रत लें। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य