वैदिक नारी संसार मे श्रेष्ठ व सर्वोत्तम
ओ३म्
मानव की उत्पत्ति का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि सृष्टि का इतिहास। यह सत्य है कि पहले सृष्टि की रचना हुई और उसके सम्पन्न होने पर ही मानव की उत्पत्ति हुई। इस सृष्टि व प्राणी जगत की उत्पत्ति का आदि कारण क्या व कौन हैं? इसका उत्तर है कि इसके आदि कारण ईश्वर, जीवात्मायें एवं सत्व, रज व तम गुणों वाली प्रकृति है और इनका उत्पत्तिकर्ता ईश्वर है। ईश्वर ने ही यह सृष्टि अपनी शाश्वत प्रजा, जीवात्माओं, को सुख एवं उनके पूर्व किये हुए कर्मों के अनुसार उन्हें सुख-दुःख रूपी भोग प्रदान करने के लिए की है। ईश्वर किसी को अकारण दुःख नहीं देता। मनुष्य व प्राणियों को जो दुःख होता है वह उनके अपने कर्मों अथवा कभी-कभी देश, काल व परिस्थितियों के कारण हुआ करता है। परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में युवावस्था में स्त्री व पुरुषों को जन्म दिया था। विगत 1.96 अरब वर्षों से यह सृष्टि निरन्तर चल रही है। शेष 2.36 अरब वर्ष इसे अभी और चलना है जिसके बाद 4.32 अरब वर्षों का प्रलय काल आरम्भ होकर उसके बाद ईश्वर पुनः सृष्टि की रचना करेगा। यह सत्य वैदिक मान्यता है जिसे पाठकों के ज्ञानार्थ उल्लेख किया है।
सृष्टि की आदि कालीन धर्म, संस्कृति व सभ्यता वेदों पर आधारित रही है जिसे वैदिक धर्म व परम्परा आदि कहते हैं। महाभारत काल व उसके बाद के सहस्रों वर्षों तक यह धर्म, संस्कृति, सभ्यता व परम्परायें अबाध रूप से संसार में चली है। महाभारत काल के बाद जैमिनी ऋषि के बाद ऋषियों की परम्परा के अवच्छिन्न होने पर वैदिक धर्म व संस्कृति विलुप्त व विकृत हो गई और उसका स्थान अंधविश्वासयुक्त मत-मतान्तरों ने ले लिया जो अनेक मिथ्या मान्यताओं, अज्ञान एव भ्रान्तियों से युक्त होने पर आज भी अपना अस्तित्व बनाये हुए हैं। आज हम यहां वैदिक नारी के अनेक स्वरूपों में से एक सद्गृहिणी और सम्राज्ञी (वृद्वजनों का वधू को आशीष व उपदेश) प्रस्तुत कर रहे हैं जो हमारे परम श्रद्धेय वेदज्ञ विद्वान् डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी की ‘‘वैदिक नारी” पुस्तक पर आधारित है। वैदिक नारी पुस्तक में आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी ने 13 अध्याय लिखे हैं जो क्रमशः 1- वैदिक विवाह, वैदिक देवियां 2- वेदों में नारी की स्थिति, 3-नारी की स्थिति पर स्वामी दयानन्द के वेदमूलक विचार, 4- उषा के समान प्रकाशवती, 5-वीरांगना, 6- वीर-प्रसवा, 7- विद्यालंकृता, 8-स्नेहयी मां, 9- पतिंवरा (कन्या का पतिवरण), 1.- धर्मपत्नी (वर द्वारा पाणिग्रहण और वधु के प्रति उद्गार), 11- अन्नपूर्णा, 12- सद्गृहिणी और सम्राज्ञी और 13- आशीर्भाजन वधु-वर (वधू-वर दोनों को आशीष व उपदेश) हैं। इसके अतिरिक्त पुस्तक में नारी का शील, नारी महिमा, मातृ-स्तुति, सूक्तियां आदि विषयों का समावेश भी किया गया है।
इस बारहवें अध्याय के आरम्भ में आचार्य रामनाथ वेदालंकार जी लिखते हैं ‘हे कुमारी, आज तुम सुयोग्य, सुन्दर वर द्वारा पाणिग्रहण किये जाने के लिए उद्यत होकर समयोचित श्रृंगार करके माता, पिता एवं अन्य सम्बन्धियों के साथ विवाह–मण्डप में आयी हो। इस मंगलमय पावन अवसर पर हमारा हृदय गद्गद हो रहा है, अन्तस्तल से आशीर्वाद की धारायें प्रवाहित हो रही हैं।’ इसके बाद वेद मर्मज्ञ लेखक ने नारी के वैदिक सद्गृहिणी और सम्राज्ञी स्वरुप को यजुर्वेद और अथर्ववेद के मन्त्रों को प्रस्तुत कर उनके अर्थों की भावपूर्ण व्याख्या भी की है। प्रथम यजुर्वेद के 11/63 मन्त्र ‘देवस् त्वा सवितोद्वपतु सुपाणिः स्वंगुरिः सुबाहुरुत शक्त्या। अव्ययमाना पृथियाम् आशा दिश आ पृण।।’ में कहा गया है कि ‘सूर्य के समान तेजस्वी, दिव्य गुण–कर्म–स्वभाववाला, प्रशस्त हाथोंवाला, प्रशस्त अंगुलियोंवाला, प्रशस्त भुजाओंवाला वर अपने सामर्थ्य से तुम्हारा पाणिग्रहण करे। पतिगृह की भूमि पर किसी भी दृष्टि से व्यथित न होती हुई तुम पति की आशाओं को पूर्ण करना, दिशाओं को यश से परिपूर्ण करना।‘
यजुर्वेद के 11/64 मन्त्र में माता-पिता कन्या-दान करते हुए कन्या का हाथ वर के हाथ में सौंपते हुए कह रहे हैं ‘हे पुत्री, तू उठकर खड़ी हो, भावी जीवन में भी सदा स्थिरता के साथ खड़ी होना। हे मैत्रीपूर्ण हृदयवाले वर, इस परिणीयमान कन्या को हम तुम्हें सौंपते हैं। ध्यान रखना, इसका मन टूटे नहीं। विघ्न–बाधाएं कभी इसे छिन्न–भिन्न न कर सकें।’ यजुर्वेद के 15/63 मन्त्र में माता-पिता की ओर से उपदेश है कि ‘हे पुत्री, हम आयुष्मान् वर के हाथ में तुझे सौंपते हैं, रक्षा में समर्थ वर की छत्रछाया में तुझे बैठाते हैं, समुद्र के समान अगाध गुणों वाले वर के हृदय में तुझे आसीन करते हैं। तू ज्ञान–किरणों से देदीप्यमान है, तू सद्गुणों से भासमान है। तू अपने तथा अन्यों के आत्मा–रूप, द्यु–लोक को चमकानेवाली है, तू देह–यष्टि–रूप–पृथिवी को चमकानेवाली है, तू हृदय–रूप अंतरिक्ष को चमकानेवाली है।’
अथर्ववेद के 14/1/17 मन्त्र के अनुसार माता-पिता अपनी पुत्री को कहते हैं कि ‘हे वधु, तुम आज पतिगृह जा रही हो। अब तक तुम पितृगृह से जुड़ी हुई थी, अब पतिगृह से जुड रही हो। तुम्हारे हित–चिन्तक हम लोग न्यायकारी परमेश्वर की पूजा करते हैं, जो उत्तम बन्धु है और पति प्राप्त कराने वाला है। जैसे पका हुआ बदरीफल वृक्ष–शाखा के वृन्त से छूटकर अलग हो जाता है, ऐसे ही परिपक्व अर्थात् पूर्ण यौवन को प्राप्त तुम्हें हम पितृगृह के बन्धन से मुक्त कर रहे हैं, किन्तु पतिगृह के बन्धन से कभी मुक्त नहीं करेंगे।’ अथर्ववेद के 14/1/42 मन्त्र में शिक्षा है कि ‘हे वधू, पतिगृह में तू सौहार्द, उत्कृष्ट सन्तान, सौभाग्य और ऐश्वर्य की कामना करती हुई पति की अनुगामिनी रहकर सदा घर में अमृत बरसाने के लिए कटिबद्ध रहना।’ अथर्ववेद के 14/1/64 मन्त्र में कहा गया है कि ‘हे पुत्री, कार्यारम्भ से पूर्व ब्रह्म (ईश्वर) को स्रमण करना, कार्यारम्भ के पश्चात् ब्रह्म को स्मरण करना। मध्य में ब्रह्म को स्मरण करना, अन्त में ब्रह्म को स्मरण करना, सब समय ब्रह्म को स्मरण रखना। समस्त आधि–व्यवाधियों से रहित गृहाश्रम की देवपुरी में पहुंचकर पतिलोक में मंगलकारिणी एवं सुखदायिनी बनकर शोभित होना।’
आईये ! कुछ और वेद मन्त्रों की शिक्षाओं पर भी ध्यान करते हैं। ईश्वर उपदेश करते हैं कि पतिगृह में निवास करती हुई तुम कभी अपने देवरों को कष्ट मत पहुंचाना, पति को कष्ट मत पहुंचाना, घर के पशुओं के लिए सुखकर होना, सदा सुनियन्त्रित तथा वर्चस्विनी बनना। प्रजनन–सामर्थ्यवाली होती हुई वीरप्रसवा बनना, परमेश्वर की पूजा करना, विद्वानों का सत्कार करना, सुखदायिनी बनकर सदा गार्हपत्य अग्नि की सेवा करना। (अथर्व. 14/2/18)। मृगशाला पर बैठकर परमात्माग्नि एवं यज्ञाग्नि की उपासना करना, क्योंकि यह अग्नि–देव सब काम–क्रोध आदि राक्षसों एवं रोग–राक्षसों का हनन करने में समर्थ हैं। अपने पति के लिए श्रेष्ठ सन्तान उत्पन्न करना, ऐसा यत्न करना कि तुम्हारा पुत्र अतिशय ज्येष्ठ गुणों से सम्पन्न हो। (अथर्व 14/2/24)। तुम सुमंगली, गृह–जनों का कष्ट से उद्धार करनेवाली, पति के लिए अतिशय सुखदायिनी, सास–श्वसुर को शान्ति देनेवाली होकर पतिगृह में प्रवेश करो। (अथर्ववेद 24/2/26)। तुम श्वसुर–जनों को सुख देना, पति को सुख देना, परिवार के अन्य जनों को सुख देना, पतिगृह की सारी ही प्रजा को सुख देना और इन सबकी यथायोग्य सेवा एवं पुष्टि करती रहना। (अथर्व. 14/2/27)। हे वधु, तुम पतिगृह जाओ और वहां गृहपत्नी बनकर रहो। सविता प्रभु तुम्हारी आयु लम्बी करे। सुबोधमयी, तुम सदा जागरूक रहती हुई स्वयं को तथा अन्य परिजनों को सौ वर्ष की दीर्घायु प्राप्त कराने के लिए सतर्क रहना। (अथर्व. 14/2/75)।
हे वधू, तुम ज्योतिष्मती हो, उच्च स्थितिवाला तुम्हारा पति द्युलोक के समान उच्च घर में तुम्हे स्थान देवे। तुम धर्मानुकूल बातों को ग्रहण करने के लिए, दोषों को दूर करने के लिए तथा सबको चेष्टावान् बनने के लिए सम्पूर्ण ज्योति प्रदान करो। सूर्य के समान विद्या आदि से प्रकाशमान पुरुष तुम्हारा पति है। देवता–स्वरुप उस पति के साथ तुम शरीर में प्राण के समान गृहाश्रम में स्थिर होकर रहो। (यजुर्वेद 15/58)। हे वधू, जैसे वर्ष करने वाला बादल नदियों को साम्राज्य दे देता है, वैसे ही तुम्हारा वर्षक पति तुम्हें घर का साम्राज्य सौंप दे तुम पति के घर जाकर सम्राज्ञी बनकर रहो। (अथर्व. 14/1/43)। तुम श्वशुरों की दृष्टि में महारानी बनो, देवरों की दृष्टि में महारानी बनों, ननद की दृष्टि में महारानी बनो, सास की दृष्टि में महारानी बनो। हे पुत्री, यही हमारा आशीर्वाद है, यही हमारी शुभ–कामना है, यही हमारी शिक्षा है, यही हमारा उपदेश है। ।।ओं सौभाग्यमस्तु, ओं शुभं भवतु।।
इन पंक्तियों को प्रस्तुत कर यह भी विचार आता है कि आज के नर व नारी ईश्वर की आज्ञा को जानते ही नहीं, तो उनके मानने का तो प्रश्न ही नहीं है। इस अवज्ञा का परिणाम उनके लिए दुःख व कष्ट के अतिरिक्त और क्या हो सकता है। आज की मनुष्य जाति आधुनिक काल में जी रही है परन्तु आधुनिक काल को देखकर लगता है कि यह काल ज्ञान-विज्ञान युक्त होने पर भी मनुष्य के जीवन वह रहन-सहन, आचार-विचार, कार्यकलाप, कर्तव्यपालन, धार्मिकता आदि की दृष्टि से मिथ्याचार और घोर पतन का काल है। ऐसा किसी एक मत में नहीं अपितु सभी में समान रूप से हो रहा है। आज के नर-नारी का जीवन योग प्रधान न होकर भोग प्रधान बन गया है। सबका ध्यान व जोर केवल इन्द्रिय सुखों पर आधारित भोगों को भोगना है जिसमें नैतिकता आदि गौण होकर समाप्त होती दिखाई दे रही हैं। दैनिक कर्तव्य ईश्वरोपासना, देवयज्ञ और पितृयज्ञ आदि की सर्वत्र उपेक्षा हो रही है। वैदिक और नैतिक मूल्यों को ताक पर रखकर आधुनिकता के नाम पर बेसिरपैर की बातों का आलाप किया जाता है। दुःख है कि आज की आधुनिक अपसंस्कृति व सभ्यता आर्यों के परिवारों में घुसकर भी अपना स्थान बना रही है। आधुनिकता के नाम पर वेद अनभिज्ञ अज्ञानी लोगों द्वारा मनुष्य को पशु से भी बदतर जीवन में ढालना घोर उपेक्षणीय, चिन्तनीय एवं निन्दनीय है। हमने यह शब्द आज के नर-नारियों की अमर्यादित स्वतन्त्रता व स्वछन्दता और समाज के निर्धनों के हित की उपेक्षा आदि को ध्यान में रखकर कहे हैं। हां अपवाद यदा-कदा हो सकते हैं। वेदों में नारी के जिस उज्जवल व प्रकाशमान् जीवन व चरित्र का वर्णन हुआ है ऐसा विश्व साहित्य में कहीं नहीं हुआ। इस कारण भी वेद ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होते हैं क्योंकि वेदों ने नारी सहित किसी के साथ पक्षपात वा अन्ययाय नहीं किया जैसा कि परवर्ती साहित्य में हुआ है। खेद है कि आज की नारी ने स्वयं को वेदों से दूर किया हुआ है और क्षणिक सुखों, स्वार्थों व अज्ञानता के कारण हीन जीवन मूल्यों को अपनाया है। पाठकों से निवेदन है कि वह ‘वैदिक नारी’ पुस्तक को सम्पूर्णता से पढ़े और उसका प्रचार करें जिससे वह पुण्य के भागी होंगे। वैदिक नारी हो या इतर मनुष्यों का जीवन, वेद ही सबके लिए आदर्श, अनुकरणीय एवं आचरणीय हैं जो मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की उपलब्धि कराते हैं। मोक्ष ही ब्रह्म लोक है जहां न जन्म है न मृत्यु, न दुःख है और न किसी प्रकार का शोक, केवल सुख और आनन्द ही आनन्द है। मोक्ष में पूरे ब्रह्माण्ड का भ्रमण करने की स्वतन्त्रता भी है। इन सुखों की प्राप्ति के लिए वैदिक धर्म और संस्कृति को अपनाना मनुष्य मात्र का कर्तव्य और सौभाग्य की बात है। और अधिक विस्तार न कर लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य