उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –१८

धनिया को अधिक प्रयास नहीं करना पड़ा । बाबू उठ बैठा । धनिया बोली ” अब हमें देर नहीं करनी चाहिए बापू । देर हो गयी और किसीने देख लिया तो सब गड़बड़ हो जाएगी । मैंने सब सामान बाँध लिया है । आप हाथ मुंह धो लो । फिर चलें ।”

बाबू शांत स्वर में धनिया का चेहरा देखते हुए बोल पड़ा ” तु किस मिटटी की बनी है बेटी ! ये तू कह रही है की हमें चलना है । ना बेटी ! तेरा दिल बड़ा होगा । तू कुरबानी दे सकती है लेकिन मैं तेरी आँखों में अपनी वजह से आंसू नहीं देख सकता । मैं हार गया हूँ बेटी । मैं अपनी वफादारी के लिए तेरे भविष्य और तेरी ख़ुशी को दाँव पर नहीं लगा सकता । ”

अभी वह और पता नहीं क्या क्या समझाता कि तभी धनिया एकाएक बोल पड़ी ” ये आपको क्या हो गया है बापू ? क्या वफादारी गुनाह हो गया है ? नमक हरामी का कलंक लेकर अपने माथे पर आप किसीको मुंह दिखा पाएंगे ? ”

” तो क्या हो गया ? यहाँ से जाकर भी किसको मुंह दिखाना है ? ” बाबू ने प्रतिरोध किया ।

” आप यह क्यों भूल रहे हैं कि यह सब थोड़े दिनों की ही बात है । सब कुछ सामान्य होने के बाद आपको और हो सकता है मुझे भी यहीं आकर जीना है । तब क्या मुंह दिखायेंगे और कैसे रहेंगे ? ” धनिया ने उसे भविष्य की एक झलक दिखलाई ।

बाबू का बेटी के प्रति प्रेम के उफान का गुब्बारा अब हकीकत की धरती से टकराकर फूट चुका था ।

” ठीक है बेटी ! जैसी तेरी इच्छा ! लेकिन मेरा अभी भी गाँव छोड़ने का मन नहीं कर रहा है । ” बाबू का प्रतिरोध अब कमजोर हो चुका था ।

” नहीं बापू ! कमजोर न बनो । चलो उठो । ” एक तरह से धनिया ने बाबू को प्रेम से आदेश ही दे दिया था ।

और बाबू बुझे मन से उठने को मजबूर हो गया ।

धनिया के मनोभावों को वह बखूबी समझ रहा था । अपनी इकलौती कमीज पहनते हुए बाबू ने एक सवाल और दाग दिया था ” लेकिन बेटी ! हमने यह तो सोचा ही नहीं कि यहाँ से निकल कर हम कहाँ जायेंगे ? ”

धनिया भी सोच में पड़ गयी और फिर अचानक बोल पड़ी ” बापू ! राजापुर में अपने नारायण काका रहते हैं न पहले तो वहीँ चले जायेंगे । फिर वहाँ जाकर सोचेंगे आगे क्या करना है । ”

” तु शायद ठीक कह रही है बेटी ! पहले हम इस गाँव से दूर चले जाएँ फिर आगे की सोचेंगे । वैसे भी कोई जरुरत पड़ी तो हमारे पास पैसे भी हैं । सो नारायण पर कोई बोझ भी नहीं बनेंगे । ” बाबू ने उसकी बात से सहमति जताते हुए कहा ।

थोड़ी देर बाद ही अँधेरे में धनिया और बाबू खेतों के बिच बनी पगडण्डी से होते हुए शहर की ओर जानेवाली सड़क की तरफ बढे जा रहे थे ।

कपड़ों की एक पोटली बाबू ने अपने कंधे में टांग ली थी जबकि कुछ बर्तनों की पोटली धनिया ने अपने सर पर रख ली थी ।

समय रात के लगभग तीन बज रहे थे जब वो दोनों मुख्य सड़क पर पहुंचे थे ।

तेज तेज कदमों से चलते हुए दोनों शहर की तरफ बढ़ते रहे और शीघ्र ही राजापूर में विश्राम मिल के बगल में स्थित झुग्गी तक पहुँच गए ।

वहाँ से नारायण के झोपड़े तक पहुँचने में उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुयी । झुग्गी के दरवाजे पर दस्तक देते ही दरवाजा खुल गया ।

दरवाजा नारायण के लडके श्याम ने खोला था जो वहीँ रहकर शहर में साइकिल रिक्शा चलाता था । बाबू को देखकर चेहरे पर मुस्कान लाते हुए उसने  उसका अभिवादन किया और उन दोनों को घर में बिठाकर स्वयं स्टोव पर चाय रखने लगा ।

श्याम को चाय बनाते देख धनिया उठी और उसे हटाकर स्वयं ही चाय बनाने लगी । चाय पीते हुए श्याम ने बाबू से सब हाल चाल पूछा और बाबू के पूछने पर बताया कि उसके बापू अर्थात नारायण अभी ड्यूटी पर है । सुबह सात बजे तक काम पर से वापस आ जाएंगे ।

उन्हें चाय वगैरह पीलाकर श्याम अपनी रिक्शा लेकर चला गया । उसकी रिक्शा भी किराये की थी सो वह ज्यादा देर बेकार नहीं बैठ सकता था ।

श्याम के जाने के बाद बाबू और धनिया दोनों ही दरवाजा भेड कर एक कोने में पसर गए । लेटते ही दोनों को नींद आ गयी थी ।

थोड़ी  देर में नारायण भी आ गया । आहट से धनिया की नींद खुल गयी और उसने बाबू को भी जगा दिया था ।

नारायण और बाबू दोनों मौसेरे भाई थे । उस नाते धनिया नारायण को काका कहती थी । नारायण ने बाबू से उसकी तबियत के बारे में पुछा और फिर दोनों में बातों का सिलसिला चल पड़ा ।

बाबू ने नारायण को रात में हुयी सारी बात बताकर उससे धनिया के लिए कोई लड़का बताने का आग्रह किया । बाबू की बात नारायण को नागवार गुजरी थी । तुरंत ही प्रतिरोध कर उठा ” अरे भैया ! पगला गए हो का ? उ लालाजी के कहने से तुम गाँव छोड़ आये हो । चलो यहाँ तक तो ठीक है । लेकिन ये क्या बात हुयी कि धनिया की शादी भी जल्दी ही कर देनी है ? अगर लाला अपने लडके को नहीं सम्भाल सकते तो इसमें हमारा क्या दोष है ? ”

बाबू तुरंत ही बोल उठा ” नहीं नहीं नारायण ! लालाजी बहुत भले आदमी हैं । तुम नहीं जानते उनके हमारे ऊपर कितने अहसान हैं । हम जीते जी उनका अहसान कभी नहीं चुका सकते । नसीब से हमको उनके काम आने का मौका मिला है और तुम कहते हो कि हम वो मौका भी गँवा दें । नहीं नारायण नहीं । हमसे ऐसा न होगा । ”

” अरे भैया ! तुम्हें अपनी इस लाडली बिटिया की जरा भी फिकर नहीं है ? ” नारायण ने प्रतिरोध जारी रखा ।

बड़ी देर से खामोश धनिया दोनों भाइयों की बहस ध्यान से सुन रही थी । अब बारी धनिया की थी ” नहीं काका ! बापू तो मुझसे बहुत प्यार करते हैं । मेरा बुरा सोच भी नहीं सकते । आपको कोई गलतफहमी हो रही है । ”

” कोई गलतफहमी नहीं हो रही है । किसीके कहने से कुएं में कूदने वाला ही मुर्ख कहलाता है । ” अबकी आवेश में नारायण सभ्यता और सम्मान की एक सीमा लांघ चुका था ।

लेकिन बाबू ने उसकी बात का कोई बुरा नहीं माना । उसे मालूम था कि नारायण उसके प्रति प्यार और हमदर्दी के ही कारण आवेश में आ गया है । उसे शांत स्वर में समझाने का प्रयास जारी रखा ” नारायण ! मैं तुम्हारी भावना को समझ रहा हूँ । तुम भी हमारी मज़बूरी को समझने का प्रयास करो । बस तुम्हारी नजर में कोई लड़का जो धनिया से शादी कर ले , हो तो बता दो ।”

अब नारायण ने हथियार डालते हुए जवाब दिया ” ठीक है ! अभी तो तुम दोनों थोड़ी देर आराम कर लो फिर मैं तुम्हें एक आदमी से मिलवाता हूँ । देखो तुम दोनों को पसंद आ जाये तो बात चलाएंगे उससे शादी की । इसी मील में काम करता है । चपरासी है । अच्छा कमाता है । दिखने में भी ठीक ठाक है । ” बोलकर नारायण ने बाल्टी उठाई और सामने लगे नल पर नहाने चल गया । बिना टोंटी के नल से अनवरत पानी गिरकर नालों के गंदे पानी में विलीन हो रहा था । उसके थोड़े से हिस्से का नारायण सदुपयोग करने जा रहा था ।

सरकारी लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण व सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग इन झुग्गी बस्तियों में ही देखने को मिलता है ।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।