ग़ज़ल –कुछ तुम झुको कुछ हम झुकें
आते तो सभी अकेले हैं इस दुनिया में और जाते भी अकेले ही हैं , पर आने व जाने के मध्य जो संसार-व्यापार है, यही ज़िंदगी है और हर लम्हा खुश खुश जीना ही जीना है | इस ज़िंदगी के सफ़र में किसी हमसफ़र का होना उसे सुहाना सफ़र बना देता है | सफ़र को सुहाना बनाए रखेने के लिए एक दूसरे को सुनना, समझना, जानना व मानना अत्यंत आवश्यक है …प्रस्तुत है एक गज़ल…..
कुछ तुम रुको कुछ हम रुकें चलती रहे ये ज़िंदगी |
कुझ तुम झुको कुछ हम झुकें ढलती रहे ये ज़िंदगी |
कुछ तुम कहो कुछ हम कहें सुनती रहे ये ज़िंदगी ,|
कुछ तुम सुनो कुछ हम सुनें कहती रहे ये ज़िंदगी |
बहकें जो साथ साथ तो छलकी ये ज़िंदगी,
मस्ती में झूमके चलें मचली रहे ये ज़िंदगी |
घुट घुट के जीना भी है क्या ए यार कोइ ज़िंदगी,
कोइ न साथ देगा बस छलती रहे ये ज़िंदगी |
हर गम खुशी जो साथ साथ यार के जिए ,
आयें हज़ार गम यूंही हंसती रहे ये ज़िंदगी |
वो हारते ही कब हैं जो सज़दे में झुक लिए ,
यूं फख्र से जियो यूंही चलती रहे ये ज़िंदगी |
रहरौ है हर एक शख्स और दुनिया है रहगुजर ,
खुश रंग यूंही चलते रहो पलती रहे ये ज़िंदगी |
आया न साथ कोई, न कोई साथ जायगा,
कुछ हमकदम हों साथ तो संभली रहे ये ज़िंदगी |
गुल भी हैं और खार भी, इस रहगुजर में श्याम’
हो साथ हमनफस कोई खिलती रहे ये ज़िंदगी ||
— डॉ श्याम गुप्त