ग़ज़ल
मेरे गर्दिशों का आलम , तुझे पूछना न आया ।
तेरी बदसलूकियों पे , मुझे रूठना न आया।।
ये वफ़ा की थी तिज़ारत , मैं समझ सका न तुझको ।
है सितम का। इम्तहाँ ये , मुझे टूटना न आया ।।
हुए हम भी बे खबर जब, वो नई नई थी बंदिश।
वो ग़ज़ल की तर्जुमा थी , हमे झूमना न आया ।।
था सराफ़तों का मंजर ,वो झुकी हुई निगाहें ।
बड़ी तेज आंधियाँ थीं , कभी लूटना न आया ।।
ऐ बहार मत गुमां कर , तू खुदा की रहमतों पर ।
मैं शजर हूँ उस खिजाँ का, जिसे सूखना न आया ।।
ये है मनचलों की बस्ती, न उठा के चल तू चिलमन।
बे अदब हुआ ज़माना , तुझे घूमना न आया ।।
न सुना तू वो कहानी ,जो थी मैकदों पे गुजरी ।
वो शराब थी नज़र की , जिसे घूटना न आया ।।
है गिरफ्त में नशेमन , हैं जमानतें भी ख़ारिज ।
ये तो इश्क की सजा है कभी छूटना न आया ।।
रहे देखते किनारे , वो नदी की तिश्नगी थी ।
कुछ गफलतों में सागर ,उसे ढूढ़ना न आया ।।
जो तड़प तड़प के लिक्खा न वो मिट सकी इबारत ।
हैं गमों के हर्फ़ जिन्दा तुझे डूबना न आया ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी