नई चेतना भाग –२३
गाड़ी सरपट भागी जा रही थी । अब तक खामोश बैठे लालाजी अचानक सुशीलादेवी से मुखातिब हुए ” शिकारपुर गाँव के चौधरी रामलालजी का फोन आया था । अमर के बारे में बता रहे थे । ”
” अ्च्छा ! क्या बताया उन्होंने ? हमारा अमर कैसा है ? ” आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी सुशिलाजी के चेहरे पर छलक पड़ी और इसके साथ ही उन्होंने कई सवाल दाग दिए ।
लालाजी ने ध्यान से सुशिलाजी की तरफ देखा और बताया ” ईश्वर की कृपा से वह अब ठीक है । ”
” वह अब ठीक है का क्या मतलब ? क्या हुआ था उसे ? साफ साफ पूरी बात बताते क्यों नहीं ? क्या बताया चौधरी रामलालजी ने ? ” सुशिलाजी अब अमर को लेकर चिंतित हो उठी थीं ।
सुशिलाजी के मन की व्यग्रता को देखते हुए लालाजी ने उन्हें संक्षेप में पूरी बात बता दी जो चौधरी रामलालजी ने उन्हें बताई थी ।
पूरी बात सुनकर और फिर अमर के सही सलामत होने की खबर जानकर सुशिलाजी की जान में जान आई ।
उन्होंने तुरंत ही ईश्वर को धन्यवाद दिया और मन ही मन बाबा की कही बात याद करने लगी । ‘ क्या बाबा ने ठीक ही कहा था ? चलो मान लो उसने ठीक ही बताया था कि अमर मुसीबत में था लेकिन अब तो वह भला चंगा है । जबकि बाबा ने कहा था कि अनुष्ठान करने से ही उसका खतरा टलेगा । नहीं तो कुछ भी हो सकता है । बाबा सरासर झूठ बोलकर मात्र पैसे ही ऐंठना चाहता था । अच्छा ही हुआ उसने पैसे होने के बावजूद बाबा से बहाना बनाकर मात्र एक हजार रुपये देकर जान छुड़ा लिया था । ‘
कुछ देर ऐसे ही तर्क वितर्क करने के बाद अंत में सुशिलाजी ने खुद को समझा लिया था कि बाबा की बात न मान कर उन्होंने कितना अच्छा किया था । खुद को ठगे जाने से बचा लिया था ।
सुशिलाजी कार की पुश्त से पीठ टिकाये आँखें बंद किये पड़ी रहीं और मन ही मन अमर की सलामती के लिए प्रार्थना करती रहीं ।
गाड़ी अब विलासपुर की ओर जाने वाले महामार्ग पर तूफानी गति से दौड़ी जा रही थी । साफ़ चिकनी सड़क पर चलने की वजह से गाड़ी में गति का अहसास नहीं हो रहा था लेकिन स्पीडोमीटर की सुई एक सौ चालीस और पचास के बीच काँप रही थी ।
राजापुर से विलासपुर की दुरी लगभग ढाई सौ किलोमीटर थी । इस समय शाम के चार बज रहे थे । विलासपुर तक की दुरी तय करने में कार से भी चार से पांच घंटे लग ही जाएंगे । लालाजी ने हिसाब लगाया । लगभग नौ बजे तक वो विलासपुर पहुँच जायेंगे ।
इधर अमर ने उसी समय डॉक्टर माथुर के कक्ष में प्रवेश किया ।
कुछ समय के लिए वह कक्ष के दरवाजे पर ठिठका क्योंकि माथुरजी अपनी कुर्सी पर बैठे फाइलों में उलझे हुए थे ।
अमर की आहट सुनकर माथुर ने फाइलों से ध्यान हटाते हुए दरवाजे की तरफ देखा और अमर को देखकर उसे अन्दर आने का इशारा किया ।
अमर ने अन्दर आते हुए माथुरजी का शुक्रिया अदा किया और उन्हीं के इशारे पर सामने ही पड़ी कुर्सी पर बैठ गया । उसके चेहरे पर चिंता के भाव स्पष्ट दिख रहे थे ।
उसके चेहरे के भावों को पढ़ने का प्रयत्न करते हुए माथुर जी ने कहा ” चिंता की कोई बात नहीं है अमर ! धनिया अब पूरी तरह खतरे से बाहर है । ”
माथुरजी ने जैसे ही यह कहा अमर का चेहरा ख़ुशी चमक उठा । माथुरजी बड़ी बारीकी से उसका निरिक्षण कर रहे थे ।
अमर की आतंरिक ख़ुशी को वह महसूस भी कर रहे थे । फिर भी उसको टटोलने की गरज से उन्होंने कहना जारी रखा, ” अमर ! ऐसी चिंताजनक स्थिति से गुजरते हुए किसी मरीज को इतनी जल्दी सामान्य होते नहीं देखा । गजब की बहादुर है धनिया । फर्ज करो कुछ अनपेक्षित हो जाता तो ? ये मारपीट लड़ाई झगड़े बेकार की चीजे हैं । और फिर तुम तो अच्छे भले घर के लगते हो । कहाँ इन छोटे लोगों के चक्कर में फंस गए ? ”
माथुरजी ने स्पष्ट रूप से अमर के चेहरे के बदलते भाव को महसूस किया । उनकी पारखी नज़रों ने यह भांपने में कोई गलती नहीं की थी कि अमर को उनकी बातें नागवार गुजरी थीं । खास कर के अंतिम वाक्य के बाद उसकी भाव भंगिमाएं तेजी से बदली थीं ।
इसके बावजूद अमर ने गजब के धैर्य का परिचय देते हुए डॉक्टर माथुर को उनकी सेवाओं के लिए धन्यवाद दिया ,” डॉक्टर साहब ! आपके बेहतरीन इलाज और देखभाल की वजह से ही धनिया इतनी जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर सकी है । इसके लिए आपकी जितनी भी तारीफ की जाये कम ही होगी । जिस तत्परता से उसे दाखिल किया गया और उतनी ही तत्परता से उसका इलाज शुरू किया गया इससे भी उसे बहुत फायदा हुआ । और आदरणीय चौधरी जी को भगवान लम्बी उम्र बख्सें ! वह तो हमारे लिए भगवान बनकर ही आये हैं । अगर उसी समय वह नहीं आ गए होते तो न जाने क्या हुआ होता ? सोच कर ही हाथ पाँव सुन्न हो जाता है । और रही बात इन छोटे लोगों की तो आपको बता दूँ हमें बचपन से ही ऐसा संस्कार दिया गया है । हमारी फैक्ट्री में सभी तरह के लोग मिलजुल कर काम करते हैं । उन सभी को हम लोग बराबर मानते हैं अपने परिवार के सदस्य की तरह ,और हमारा मानना है कि उनके मेहनत की बदौलत ही हम ऐशो आराम की जिंदगी जीते हैं । एक तरह से वो हमारे अन्नदाता हैं फिर छोटे कैसे हुए ? इंसान अपने आचरण और कर्म से ही छोटा या बड़ा होता है । अपराधी तो अपराधी ही कहा जाता है चाहे वह सवर्ण हो या हरिजन ! फिर यह क्यों नहीं समझा जाता कि हर इंसान पहले इंसान है फिर वह सवर्ण हो या हरिजन ? गरीब होना कोई गुनाह तो नहीं जिन्हें हिकारत की नजर से देखा जाये ? ” कहकर अमर थोड़ी देर के लिए खामोश हो गया ।
अमर की बातों का बुरा मानने की बजाय माथुर जी चेहरे पर मधुर मुस्कान लिए उठ खड़े हुए और ताली बजाते हुए उसके करीब आये । उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोले ” तुम हमारी अपेक्षाओं पर बिल्कुल खरे उतरे हो बेटा ! हम तुम्हारी कहानी जानते हैं । हम तो तुम्हारे मन में इन गरीबों के बारे में कैसे ख़यालात हैं यही जानना चाहते थे । ”
अमर यह जानकर हैरान रह गया था कि डॉक्टर साहब उसके बारे में जानते थे , लेकिन कैसे ? वह अंदाजा नहीं लगा सका था सो पूछ ही लिया ” लेकिन आप हमारे बारे में कैसे जानते हैं ? मैंने तो किसीको कुछ भी नहीं बताया था अपने बारे में । ”
और माथुरजी मंद मंद मुस्कराते हुए अमर के इस अवस्था का आनंद ले रहे थे । फिर बोले ” बेटा ! यह सब बातें फिर कभी । अभी तो तुम यहाँ से सीधे पहली मंजिल पर स्थित सामान्य कक्ष में जाओ । वहाँ कबसे धनिया तुम्हारा इंतजार कर रही है । लेकिन ध्यान रहे एक बार में कोई एक ही उससे मिले ! ”
माथुरजी की बात सुनते ही अमर को जैसे संजीवनी मिल गयी हो । उसका चेहरा खिल गया था और फिर बिना एक पल गंवाए वह माथुरजी को धन्यवाद अदा कर उनके कक्ष से बाहर निकल गया ।
बाहर बरामदे में बाबू और सरजू अमर का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे । बाबू ने अमर को देखते ही सवाल दाग दिया था ” छोटे मालिक ! अब कैसी है धनिया ? क्या कहा डॉक्टर साहब ने ? ”
अमर ने जवाब दिया ” अब धनिया बिल्कुल ठीक है काका ! भगवान ने आपकी सुन ली है । अब हम उससे मिल सकते हैं काका ! अब आप अपनी धनिया से मिल सकते हैं । जाइये ! यहाँ सीढियों से पहली मंजिल पर सामान्य कक्ष में उसे भेज दिया गया है । आप जाइये उससे मिल आइये । आपसे मिल कर उसे बड़ी ख़ुशी होगी । ”
और अमर के कहने भर की देरी थी कि बाबू लगभग दौड़ पड़ा था सीढियों की ओर ।
अमर उसे फुर्ती से सीढियाँ चढ़ते देख कसमसा कर रह गया । उसका मन कर रहा था वह भी दौड़ कर उस कक्ष में पहुंच जाए जहां उसकी धनिया मौजूद थी । एक नजर उसे देख ले लेकिन अगले ही पल डॉक्टर माथुर की आवाज उसके कानों में गूंजने लगी ‘ ध्यान रहे , एक बार में कोई एक ही उससे मिले ‘ और फिर अमर ने नजर दूसरी तरफ घुमा लिया ।
सरजू वहीँ उसके साथ ही खड़ा रह गया था । सरजू के करीब से हटकर अमर बाहर बगिचे की तरफ बढ़ गया जहां थोड़ी देर पहले तीनों बैठे हुए थे ।