उपन्यास अंश

नई चेतना भाग –२४

बाबू सीढ़ियों से होकर पहली मंजिल पर स्थित सामान्य कक्ष में पहुंचा ।

यह सामान्य कक्ष अपेक्षाकृत बड़ा था । लगभग 80 बिस्तरों वाला यह कक्ष मरीजों से भरा हुआ था । अमर ने धनिया का बेड नंबर नहीं बताया था और जल्दबाजी में उसने पूछा भी नहीं था । अन्दर कक्ष में पहुँच कर दरवाजे पर रुक कर ही उसने एक सरसरी निगाह पुरे कमरे में दौडाई । धनिया उसे कहीं नजर नहीं आ रही थी ।

कमरे में लगभग सभी बेड पर मरीज थे । कुछ लेटे अधलेटे तो कुछ बैठे अपने साथियों से गप्पे लड़ा रहे थे । कुछ मरीज कराह भी रह थे । रह रह कर किसी मरीज की चीख तो किसीकी कराह वातावरण में गूंज जाती । कई तरह के दवाइयों की दुर्गन्ध वातावरण को कुछ अजीब सा बना रही थीं ।

किससे पूछे ? क्या करे ? अभी सोच ही रहा था कि तभी कमरेे में बीच में ही कुछ नर्स बैठी हुयी दिखीं । कमरे के मध्य में ही एक गोल मेज के पीछे चार नर्सें बैठी थीं । उनमें से एक फ़ाइल् में कुछ लिखने में मशगुल थी । दो कुर्सी पर बैठी गप्पें लड़ाने में तो एक ट्रे में कुछ दवाइयां रखने में व्यस्त थी ।

उनसे धनिया के बारे में पता करने की नियत से वह सीधा उनकी तरफ बढ़ता गया , लेकिन उनके नजदीक जाते ही उसे कुछ पूछने की जरुरत नहीं पड़ी क्योंकि उसकी नजर एक बेड पर लेटी धनिया पर पड़ गयी थी ।

धनिया एक बेड पर लेटी थी । उसके जिस्म पर अस्पताल द्वारा मरीजों के लिए निर्धारित कपडे थे । सर पर पट्टी बंधी हुयी थी । उसकी आँखें बंद थीं । गहरी नींद में थी शायद ! बाबू धीमे कदमों से चलता हुआ धनिया के बेड के सामने जाकर ख़ामोशी से खड़ा हो गया ।

कुछ देर तक बाबू उसी बेड के बगल में खड़ा रहा । बगल वाले बेड पर लेटी महिला मरीज ने उसे बताया ‘ इसे अभी अभी इस कमरे में लाया गया है ।’

उस महिला की आवाज सुनकर धनिया ने आँखे खोल कर सामने देखा । सामने ही बाबू को देखकर एक बार तो उसके चेहरे पर प्रसन्नता की लकीरें खिंच गयीं लेकिन अगले ही पल उसकी आँखों में आंसू तैरने लगे । उठने की कोशिश करती हुयी धनिया फफक पड़ी थी । बाबू ने दौड़ कर उसे थाम लिया और लेटे ही रहने का इशारा किया ।

धनिया दोनों हाथों से अपना चेहरा ढँक कर फूट फूटकर रो पड़ी ।

धनिया के रोने की आवाज सुनकर नर्स तेजी से चलती हुयी वहां आ गयी । धनिया व बाबू को चुप रहने की और बात न करने की हिदायत देकर वापस चली गयी थी ।

नर्स की हिदायत के बाद धनिया थोडा संयत होते हुए बाबू से बोली ” मुझे माफ़ कर दो बापू ! छोटे मालिक को मार खाते हुए देखकर मैं खुद को नहीं रोक पाई और सब गड़बड़ हो गया ।” अचानक जैसे उसे कुछ याद आया ” अरे हाँ ! बापू ! छोटे मालिक अब कैसे है ? ठीक तो हैं न ? ”

बाबू ने स्नेह से धनिया के आँसू पोंछते हुए उसे दिलासा दिलाया और कहा ” कुछ गड़बड़ नहीं हुआ बेटी कुछ गड़बड़ नहीं हुआ ! छोटे मालिक को यहाँ देखकर मैं भी चौंक गया था । मुझे भी कहाँ उम्मीद थी कि वो यहाँ भी पहुँच जायेंगे ? अब चाहे जो हो बेटी ! मुझे इस बात का संतोष है कि हमने पूरा प्रयास ईमानदारी से किया । अब पता नहीं भगवन को क्या मंजूर है । ”

धनिया अब तक खुद को पूरी तरह संभाल चुकी थी । ” आपने बताया नहीं ! छोटे मालिक अब कैसे हैं ? बस वो ठीक हो जाएँ फिर मुझे कुछ नहीं चाहिए । मैं सरजू के पैर पकड़कर उनसे माफ़ी मांग लुंगी बापू ! और मुझे पूरा उम्मीद है कि वो मुझे माफ़ कर देंगे और मुझे स्वीकार कर लेंगे । आप मायूस न हों बापू । मैं यहाँ से निकलते ही सब ठीक कर लुंगी । आपके नाम पर कोई धब्बा नहीं लगेगा बापू ! आप फिकर नहीं करना । बस एक काम और करना । छोटे मालिक से यह न बताना कि अब मैं ठीक हूँ । उनसे यही बताना कि डॉक्टर ने मिलने से मना किया है । मैं उनको देखकर और कमजोर नहीं होना चाहती बापू ! ” कहते कहते धनिया एक बार फिर रो पड़ी थी ।

उसे बिलखते देख बाबु भी द्रवित हो उठा ” मत रो बेटी ! अब तू छोटे मालिक की फिकर न कर ! वो बिल्कुल ठीक हैं । और रही बात सरजू की तो वो कोई नाराज थोड़े ही न है । वह तो तुझसे शादी करने के लिए तैयार ही है बेटी ! बस तू ठीक हो जा मेरी बच्ची ! सब ठीक हो जायेगा । ”

बड़ी देर तक बाबू धनिया को समझाता रहा । उसे दिलासा देता रहा । और फिर उसे अपना ध्यान रखने को कहकर कक्ष से बाहर आ गया ।

नीचे अमर और सरजू को न देखकर उसे कुछ चिंता हुई । बरामदे से बाहर निकलकर वह बगीचे के तरफ मुड़ा । बगीचे में उसे अमर एक बेंच पर बैठा दिखाई पड़ा । गुमसुम सा उदास सर झुकाए बैठा अमर किसी गहन अंतर्द्वंद से गुजर रहा प्रतीत हो रहा था ।

बाबू धीमे कदमों से चलता हुआ अमर के समीप ही नीचे घास पर बैठ गया । आहट सुनकर अमर ने सर उठाया और सामने ही बाबू को बैठा पाकर मुस्कराने का प्रयास किया । ” अब कैसी है धनिया काका ? ” आखिर अमर ने पूछ ही लिया था ।

” अब वह बिल्कुल ठीक है छोटे मालिक ! लेकिन आपसे एक विनती है । ” बाबू कुछ बोलते बोलते रुक गया ।

” हां काका ! बोलो क्या बात है ? ” अमर ने उसे कुरेदते हुए पूछा था ।

” आज आप मुझसे वादा करिए छोटे मालिक कि आप धनिया से फिर कभी मिलने की कोशिश नहीं करेंगे । ” बाबू के शब्दों ने अमर को पूरी तरह से झिंझोड़ दिया था ।

तड़प उठा था अमर उसकी बात सुनकर । उसका अंतर्मन चीत्कार कर उठा और बोला ” लेकिन काका ! आप ऐसा क्यों कह रहे हैं ? मुझे किस गुनाह की सजा आप देना चाहते हैं ? ”

” हम आपको क्या सजा देंगे छोटे मालिक ? सजा तो हम बाप बेटी भुगत रहे हैं । घर से बेघर हो गए । सुख चैन सब छिन गया और यहां अस्पताल में पड़े हैं । अब पता नहीं नसीब क्या कराएगी ? ” बाबु ने अपना रोष प्रकट किया था ।

” नहीं नहीं ! ऐसा न कहो काका ! क्या आप मुझे धनिया के लायक नहीं समझ रहे ? ” अमर ने प्रयास जारी रखा था ।

” नहीं मालिक ! दिक्कत तो यही है कि धनिया आपके लायक नहीं है । भावनाओं में बहकर कोई फैसला नहीं करिए मालीक । कहाँ आप और कहाँ हम गंवार हरिजन । हमारा आपका कोई मेल नहीं है मालिक । हम तो सिर्फ आपकी सेवा कर सकते हैं । आपसे रिश्तेदारी की बात तो हम लोग सपने में भी नहीं सोच सकते । नहीं नहीं मालिक ! आप बस हमें हमारे हाल पे छोड़ दीजिये  । मैं आपके आगे हाथ जोड़ता हूँ । ” बाबू ने सपाट लहजे में स्पष्ट किया था ।

अमर गिडगिडा उठा ” नहीं नहीं काका ! ऐसा न कहिये । मैं जानता हूँ धनिया भी मेरे बिना नहीं रह पायेगी । आप हमारे साथ ऐसा नहीं कर सकते । ”

बाबू पर जैसे अमर की बात का कोई असर ही न पड़ा हो ” नहीं मालीक ! मैंने कह दिया न कि हमारा आपका कोई मेल नहीं है । आप धनिया को भूल जाइये और अपने घर लौट जाइये । ”

” अच्छा तो आप मुझे बताइए कि धनिया के बराबर होने के लिए मुझे क्या करना पड़ेगा ? ” अमर ने पूछ ही लिया था ।

” छोटे मालिक ! ये उंच निच छोटा बड़ा कोई अपने चाहने से नहीं बनता है । अगर ये हमारे हाथ में होता तो हम क्यों हरिजन परिवार में जनम लेते ? किसी ठाकुर के घर नहीं पैदा होते ? यह विधि का विधान है छोटे मालिक ! इसे हम और आप नहीं बदल सकते । आप भूल जाइये धनिया को । उसे भूल जाइये । मैं आपके हाथ जोड़ता हूँ । ” कहते हुए दोनों हाथ जोड़कर बाबू रो पड़ा था ।

” ठीक है काका ! मैं चला जाऊंगा । लेकिन जाने से पहले एक बार मुझे धनिया से मिल लेने दो । उसे एक बार भर नजर देख लेना चाहता हूँ ताकि उसकी दिल में बसी उसी तस्वीर के सहारे जीवन बिता सकूँ । बताइए काका ! आप एक बार तो मुझे धनिया से मिलने देंगे न ? ” अमर हथियार डालते हुए तड़प कर रो पड़ा था ।

” ,नहीं मालिक ! यह फैसला भी धनिया का ही है । वह आपसे नहीं मिलना चाहती । ” बाबू ने स्पष्ट किया ।

अमर को ऐसा लगा जैसे उसके पैरों में कोई जान न हो । बाबू के कहे शब्द उसके कानों में असंख्य घंटियों की मानिंद गूंजने लगे । उसे ऐसा लगने लगा बस अभी उसकी खोपड़ी फट जाएगी और उसने घबराकर दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिये ।

उसे यकिन नहीं हो रहा था कि धनिया ने ऐसा कहा होगा । धनिया आखिर ऐसा क्यों कहेगी ? उसकी समझ में कोई वजह नहीं आ रही थी ।

बहुत प्रयास करने पर भी वह जब कोई वजह तलाश नहीं कर पाया तो अपनी बेबसी पर फफक पड़ा । उसने एक बार फिर धनिया को खो दिया था ।

यह उसके लिए ठीक वैसा ही था जैसे कोई मांझी तूफानी लहरों से बचा कर कश्ती को निकाल लाये और उसकी कश्ती किनारे के नजदीक आकर डूब जाये । अपनी मर्यादा के बंधन में बंधा अमर बाबू की इच्छा का अनादर भी नहीं करना चाहता था । अब क्या करे ? उसे क्या करना चाहिए ? वह कुछ तय नहीं कर पा रहा था ।

 

क्रमशः

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।