सामाजिक

अंतस बदले तो आचरण बदलता है…

हम सभी अपनी कुछ आदतों से बहुत परेशान रहते हैं अनावश्यक क्रोध,निंदा, लालच आदि.पर ऐसा भी नहीं की हम इससे छुटकारा पाने का प्रयत्न नहीं करते.लगभग रोज़ रात को अपने आप से ये वायदा करते हैं की कल से ऐसा कुछ नहीं करेंगे जिससे बाद में हमे पछतावा हो, पर रोज़ ही जब भी कोई ऐसा मौका आता है तो हम हार जाते हैं. कुछ ऐसी ही समस्या आजकल पूरे विश्व की है,खासकर उन लोगों की जो ये महसूस करते हैं की जो वो कर रहे हैं वो गलत है और अंदर ही अंदर घुटते रहते है पर कोई भी ऐसा तरीका नहीं मिलता जिससे इस रोग से निदान मिले. हम सब के अंदर कुछ ऐसा बनने की जदोजहद लगी रहती है जो हम नहीं है.लगता है हमने खुद एक आडम्बर की चादर ओढ़ी हुई है अगर हम इसे और गहराई से देखें तो पूरी मनुष्य जाति आदि काल से इसी समस्या से जूझ रही है,फिर क्यों नहीं हमे अभी तक कोई समाधान मिला. शायद हम गलत दिशा की और अग्रसर है , हम बीमारी का नहीं लक्षणों का उपचार कर रहे है. बीमारी हमारे अंदर है ..अंतस में …जब तक हम अपने “अंतस को नहीं बदलेंगे हमारा आचरण नहीं बदलेगा”. और ये ऐसा कोई कठिन कार्य भी नहीं है हमे सिर्फ अपने स्वभाव में वापस लौटने की जरुरत है जैसा हमे बनाया गया है. रास्ता हमारे अंदर है पर हमे फुरसत ही नहीं है अपने अंदर झाँकने की. एक मुद्दत हो गयी है हमे कभी शांत हुए,रुके हुए…जब कभी हम खाली भी होते हैं तो मन खाली नहीं होता निरंतर चलता रहता है. हमारे सारे प्रश्नों के उत्तर हमारे अंदर ही हैं पर हमने कभी उन्हें ढूंढने का प्रयत्न नहीं किया. बस अपने से एक साक्षात्कार की ज़रूरत है.

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

[email protected]