लघुकथा – नींद
“विवेक, तेरा ही ठीक है यार ! यूँ लगता है,जैसे किसी शहजादे की जिन्दगी जी रहा है तू ! इतनी ढेरसारी पाकेटमनी तुझे कैसे देते हैं तेरे पापा ! मेरे पापा तो यार दस रुपये भी देते हैं तो बाकायदा उसका हिसाब-किताब लेते हैं। भला हैं क्या तेरे पापा? ” गिरीश ने पूछा।
विवेक अकड़ता हुआ बोला-” अबे, मेरे पापा स्मगलर हैं। उनका बहुत बडा कारोबार है, बहुत सारे पैसे कमाते हैं वो और जाने कितनों को कमवाते हैं।”
“तभी तो।” गिरीश बोला।
“और क्या ! पर तेरे पापा क्या करते हैं ?” विवेक ने पूछा।
“मेरे पापा एक निजी मांटेसरी स्कूल में क्लर्क हैं। धार्मिक प्रवृत्ति के हैं। झूठ कभी नहीं बोलते। हमेशा सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चलते हैं और हम सबको चलने की सलाह देते हैं।”
गिरीश ने बताया।
” कितनी कमाई है उनकी महीने भर की ? ” विवेक ने पूछा।
” महज आठ हजार रुपये।”
“उनसे कह, मांटेसरी की क्लर्की छोड़कर मेरे पापा का ‘कारोबार’ ज्वाइन कर लें। अथाह पैसा होगा उनके लिए, तेरे लिए और तेरे पूरे परिवार के लिए।”
” ठीक है, तू मेरा दोस्त है तो मेरे लिए भला ही सोचेगा। पर यह बता, तेरे पापा को रात में अच्छी नींद आती है न ? ”
” कहाँ यार, बिना नींद की गोली लिए उन्हें नींद ही नहीं आती।”
” तनाव में तो नहीं रहते न ?”
” तनाव में तो बहुत रहते हैं। जब देखो, चिल्लाते ही रहते हैं।”
“तभी तो।”
— मुन्नू लाल