लघुकथा : शरीफ
पूजा आफिस में घुसते-घुसते गेट के बाहर ही ठिठक गई। भीतर उसी की बातें हो रही थीं।
” यार, यह जो पूजा है न ! जरा सा लिफ्ट नहीं देती। हम क्या इतने बुरे हैं। इसने खुद को समझ क्या रखा है !” यह महेश की आवाज थी।
” हाँ यार, बस वह दनदनाते हुए आती है और सीधे काम पर लग जाती है। न कुशल, न क्षेम। बस वही हाथ हिला-हिलाकर सूखी- सूखी हाय- हैलो, धत् इससे क्या होता है !” दिनेश बोला।
अब नीरज का नम्बर था -“यार, मैं क्या बताऊँ , चेहरे-मोहरे से भी बहुत फर्क पड़ता है। तुम कमीनों, फिल्मों के विलेन जैसे तो दिखते हो, भला कौन लड़की घास डालेगी तुम्हें ! वैसे यहाँ सबसे शरीफ वह मुझे ही समझती है, तभी तो कोई समस्या आने पर मुझसे ही पूछती है। पर उसे यह हकीकत कहाँ मालूम कि इस आफिस में मैं ही सबसे ज्यादा खतरनाक हूँ।”
समवेत ठहाकों से पूरा आफिस गुंज उठा।
— मुन्नू लाल