सूर्य उपासना का महापर्व छठ
वैदिक काल से ही मनुष्य उन सभी चीजों को पूजता आया जिसने उसके जीवन में अनुकुल प्रभाव डाला है तथा जिससे दैनिक जीवन में उसे लाभ मिलता रहा हो , फिर चाहे वह नदी हो , वृक्ष , पर्वत , पहाड़ , चन्द्रमा या सूरज ही क्यों न हो , ये सभी सदैव मनुष्य के श्रद्धा का प्रतीक रहे है तथा पूजनीय भी रहे है ।
वैदिक काल से ही आर्य सूर्य को जगत आत्मा मानते रहे है । इसमे आज भी कोई संदेह कि सूर्य के बिना हम पृथ्वी पर जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते है । अतः कहने में अतिश्योक्ति नहीं की वैदिक काल से ही भारत में सूर्य उपासना का प्रचलन रहा है ।
सूर्य के उपासना की चर्चा भागवत पुराण, विष्णु पुराण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण में भी मिलता है लेकिन छठ पूजा की शुरूआत तकरीबन मध्यकाल से माना जाता है लेकिन विगत दो दशक से इसका प्रचलन बहुत तीव्र गति से बढा है । यूँ तो हिन्दुओं के अनेकानेक पर्व में से छठ भी एक आस्था से जुड़ा पर्व है किन्तु भले ही प्रतिशत काफी कम है लेकिन कुछ मुस्लिम वर्ग के लोगो भी छठ पर्व बहुत आस्था से कर रहे जिसने इस पर्व की गरिमा को बहुत बढाया है । धीरे धीरे यह पर्व सामाजिक समरसता और सांप्रदायिक सद्भावना का प्रतीक बनता जा रहा है । मूल रूप से भारत के बिहार और उत्तर प्रदेश में मनाया जाने वाला पर्व अब धीरे धीरे न सिर्फ भारत के अधिक्तर राज्यों में मनाया जा रहा है अपितु विश्व के दूसरे देश में बसे भारतीय भी कई देशों में सूर्य उपासना का यह पर्व बहुत बहुत धूमधाम और आस्था से मना रहे है । कई राज्यों ने इस पर्व पर छुट्टी की घोषणा भी इसकी बढती लोकप्रियता का संकेत देता है ।
छठ षष्ठी का अपभ्रंश है । छठ पर्व एक वर्ष में दो बार चैत्र मास तथा कार्तिक मास में मनाने की परंमपरा है । लेकिन कार्तिक मास में मनाने जाने वाले छठ की रौनक तो देखते ही बनती है । दीपावली के बाद कार्तिक मास के अमावस्या को चार दिवसीय इस व्रत की शुरूआत होती है । छठ पर्व के मनाने के पीछे अनेक लोक कथाएँ प्रचलित है उनमे से सबसे प्रचलित कथा का संबंध महाभारत के कथा से है । कहते है कि जब पांडव जुआँ में सारे राजपाट हार गए तब द्रोपदी ने यह व्रत रखा था । तब उनकी मनोकामना पूर्ण हुई और पांडव को अंतोगत्वा सारा राजपाट वापस प्राप्त हो गया ।
दूसरी कथा रामायण से जुड़ी है कहते है कि रावण विजय के बाद अयोध्या वापसी के पश्चात रामराज स्थापना वाला दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी को भगवान राम तथा माता सीता ने सूर्य देवता की पूजा अर्चना की तथा उपवास रखा था । तब से ही छठ व्रत मनाने की प्रथा है । ऐसी न जाने कितनी किवदंती प्रचलित है छठ पर्व हेतु ।
चार दिवसीय इस पर्व की शुरूआत नहाय खाए से होती है । इस दिन व्रतधारी नहाने के बाद ही भोजन ग्रहण करती है । इस दिन प्रसाद में अरवा चावल , चना के दाल से साथ कद्दु मिला कर बना दलकदूदु तथा कद्दु की सब्जी प्रसाद के रूप में ग्रहण करते है ।
दूसरे दिन से उपवास शुरू होता है इसे ” खरना ” का दिन कहते है । इस दिन गुड़ में बनी खीर , धी लगी रोटी तथा केला को प्रसाद के रूप में चढाने की परम्परा है । व्रतधारी सारे दिन के उपवास के बाद सांय काल पूजन अर्चना के पश्चात प्रसाद के रूप में इसे ग्रहण करने की प्ररम्परा है ।
तीसरे दिन व्रतधारी के लिए पूर्ण उपवास का दिन होता है , इसे बोलचाल की भाषा में संझकी अरग या संध्या अध्र्य का दिन कहते है । इस दिन नदी या पोखर किनारे सांय काल डूबते हुए सूर्य की पूजा होती है । सभी प्रसाद को बांस से बने दौरा और सुप में सजा कर नदी या पोखर किनारे ले जाने की प्रथा है, प्रसाद के रूप में विभिन्न तरह के फल चढाने की परम्परा है । इस दिन एक विशेष प्रकार का पकवान जो आटा को गुड़ या चीनी में के साथ गुथ कर फिर उसे घी में तलकर बनाया जाता है जिसे ठेकुआ कहते है , इस पर्व पर इसका विशेष महत्व है तथा प्रसाद के रूप में इसे निश्चित रूप से चढाया जाता है । बांस के सुप में सजे प्रसाद को सूर्य देवता को समक्ष अर्पित कर कच्चे दूध तथा जल से अध्र्य देने की प्रथा है । यह उपवास का वह दिवस होता है जब व्रतधारी पानी भी ग्रहण नहीं करते है तथा नीराजल संपूर्ण उपवास रखते है ।
चौथे और पर्व के आखिरी दिन ठीक उसी जगह सभी व्रतधारी वापस एकत्रित होते है । प्रसाद से सजे बांस से बने सुप पर दीप प्रज्वलित किया जाता है तथा उगते हुए सूर्य को पुनः उसी विधि से जिस विधि से सांय काल की पूजा समाप्ति होती है पुनः पूजा करने की प्रथा है । तकरीबन 36 घंटे के उपवास के बाद यह व्रत समाप्त होता है छठ पर्व पर छठ के लोक गीत भी बेहद प्रचालित है । कुछ लोक गीत तो इतने लोक प्रिय और कर्णप्रिय है जिसे सुनकर ही छठ पर्व हेतु आस्था और श्रद्धा हृदय में जन्म लेने लगती है ।
इस पर्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह समाज के हर वर्ग को साथ जोड़ने तथा हर वर्ग की अहमियत का एहसास कराती है । सिर्फ एक यही पर्व है जिसके कारण आज भी बांस से बने बर्तन बनाने की कला जीवित है तथा इसे जीवित रखने वाले का जीविकोपार्जन हेतु संसाधन जुटाने का एक मौका है । भौतिक आडम्बर से दूर नदी या पोखर किनारे किया जाने वाला यह पर्व आम इंसानों को जमीन से जुड़े रहने की सीख देता है वही नदी तालाब सूर्य की उपयोगिता याद दिलाता है जिसे आजकल की भाग दौर वाली जिंदगी में हम भूलते जा रहे है ।
आज जब मनुष्य धीरे धीरे भीड़ में अकेला होता जा रहा है । हम किसी त्योहार में भी एक दूसरे के यहाँ जाने से बचते है । आपसी संवाद कमता जा रहा है । ऐसे में इस पर्व के मनाने का तरीका ही ऐसा है कि लोग सामुहिक रूप से एक जगह एकत्र होते है तथा एक दूसरे के साथ इस पर्व को मनाते है । इस पर्व के श्रद्धा का यह आलम है कि कोई अनजान भी जरूरत पर आपकी मद्द को आ जाता है । आज के बदलते दौर में लोगों को एकजुट करने में जितना सामर्थ्य यह एक पर्व है और किसी पर्व में यह क्षमता दृष्टिगोचर नहीं होती है ।
कह सकते है कि आपसी भेदभाव को भूलाकर , साथ एकजुट हो , सेवा भावना से लबरेज , साम्प्रदायिक सौहार्द और समाजिक सद्भाव का यह एक विराट महापर्व है जो अद्वितीय है ।
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली “