कविता

मेरी दुविधा

(बलात्कार से पीड़ित एक नारी की कहानी)

मेरी मन की पीड़ा न जाने कोई

मुझे ना यहाँ समझ पाए कोई

हाल ऐ दर्द अब किसे बताऊँ

कौन है अपना जिसे दुखड़ा सुनाऊँ

परपीड़ा में यहाँ सबको आनंद आए

ओह,आह में ही बात सिमट जाए

समाज के है ये कैसे ठेकेदार

नारी को समझे अपना हक़दार

रात हो अंधेरी या चमकता उजाला

वासना से भरे इन दरिंदो का बने निवाला

राह चलते छेड़े ये,गंदी नज़र से घूरे

ये ओछि होती हरकत इनकी असंस्कारों से पूरे

ये नारी को बस एक बेजान खिलौना सा जानते

तन,मन की प्यास बुझाने का ज़रिया है मानते

हर कोई आकर रौंदकर चला जाता है

अपना काम निकालकर कुचल जाता है

यहाँ सबकी फ़ितरत ही अलग अलग है

कोई है अच्छा तो कोई बुरे से बुरा है

यहाँ कोई दर्द तो कोई दवा देता है

कोई तड़पाता तो कोई प्यार बरसाता है

कोई अस्मिता को तार तार करता है

तो कोई इज़्ज़त का रखवाला बनता है

बड़ी दुविधा में फँसी हूँ मैं

अजीब ऊहापोह में धँसी हूँ मैं

ना अब जल्द किसी पर भरोसा होगा

ना जाने कौनसा शक्स यहाँ कैसा होगा

किस पर करे भरोसा कौन है यहाँ हमारा

कैसी है ये दुविधा जिससे हर कोई हारा

सुवर्णा परतानी, हैद्राबाद

सुवर्णा परतानी

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