मोह-पाश
मोह-पाश
सुबह से ही कशमकश में था बिप्ति। आखिरकार उसने ‘अखबार’ को होटल के फर्श पर फेंक दिया और मन में बढ़ते तनाव से मुक्त होने के लिए कमरे की खिड़की को खोल दिया। एक ठंडी हवा के झोंके के साथ कुछ दूर पर हो रहे कोलाहल के बीच नदी पर फैले अपार जनसमूह ने उसके मन को थोडा शांत किया।
“क्या देख रहे हो साहबजी ?” होटल के वेटर बन्नू ने कमरे में घुसते हुए उसका ध्यान आकर्षित किया। “छठी मैया का उत्सव है, बहुत धूम धाम से मनाया जाता है इस नदी पर।”
“अच्छा! सुना तो बहुत है इसके बारें में।”
“हाँ साहब, यह लोक आस्था और सूर्योपासना का पर्व है जिसे चार दिन तक मनाया जाना जाता है।” बन्नू अपना ज्ञान बांचने लगा। “यूँ तो इसे स्त्री-पुरुष सभी करते है लेकिन स्त्रियां विशेष तौर पर इसे पुत्र की प्राप्ति या पुत्र की कुशलता के लिए रखती है। इसमें व्रती सुबह स्नान कर सूर्य को जल अर्पित करने के बाद शुद्ध भोजन का प्रसाद ग्रहण करती है और उसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत जिसमें पानी भी नहीं पीते, रखती हैं। और साहब जी अपने पुत्र की कुशलता के लिए ये माताएं इतना कठोर व्रत……।” बन्नू अपनी बात कहता जा रहा था और बिप्ति एक बार फिर से अपने तनाव में घिरने लगा था लेकिन इस बार उसका मन एक निर्णय पर पहुँचने लगा था।
“बन्नू एक काम करो, मैनेजर से कहो मेरा ‘चेक-आउट’ कर के बिल तैयार करे। मुझे जल्दी लौटना है।” कहते हुए बिप्ति, बन्नू की कथा बीच में ही छोड़ अपना सामान समेटने लगा।
चलते चलते उसने फर्श पर पड़े अखबार को उठा दिल से लगा लिया जिस पर उसके नाम के साथ उसके पिता का संदेश छपा था। “बेटा! मेरे लिए न सही अपनी माँ के लिए नाराजगी छोड़ कर घर लौट आओ जो पिछले तीन दिन से भोजन, बिछौना सब छोड़, तुम्हे देखने के लिये निर्जला व्रत रखे हुए है।”
विरेंदर ‘वीर’ मेहता