गीतिका/ग़ज़ल

तल्खियां

टूटी कश्ती का किनारों से किनारा हो गया
कल तलाक जो शख्स हमारा था तुम्हारा हो गया

कैसे कह दे,तुम से कभी,हमने मुहब्बत की न थी
इस तसवुर से मेरा दिल,पारा पारा* हो गया

दिल के आइनो पे अपने रंजिशों की धूल थी
प्यार का कपडा लगा खूबसूरत नज़ारा हो गया

नफरतों की बदलियों में हम घिरे थे चार-सु*
इश्क़ की बारिश में धूल,आलम पाक सारा हो गया

इन सियासी मौसमों में तल्खियां* भी थी बोहोत
वहम के बादल छंटे फिर से भाई चारा हो गया

फ़ुर्सतें भी लाज़मी* थी रब से मिलने के लिए
तैरना छोड़ा, भंवर खुद ही किनारा हो गया

(पारा पारा – टुकड़े टुकड़े
चार-सु – चरों तरफ से
तल्खियां – कड़वाहट
लाज़मी – ज़रूरी,अनिवार्य )

 

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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