मन
ओह्ह् ये मन
है कुछ उदास
लगता है लगा रखा है
किसी अपनो से
मिलने का आस
आखिर लगाये क्यो नही
वर्षो से दूर है सखे संबंधीयों से
अब और ये विरह
नही सह पायेगा
एक घडी भी अब
मुश्किल से ही बितायेगा
लेकिन इतना होने पर भी
आखिर मै समझती क्यो नही
मन की बात को पढती क्यो नही
बात इसका सुनती क्यो नही
क्या करूँ मै भी मजबूर हूँ
बंध गयी हूँ अजीब सा बंधन में
जैसे लाख शक्तिशाली होते हुये भी भंवरा
जब रात्रि मे कमल के
कोमल पंखूडीयों मे बध जाता है
तो उसकी वो ताकत क्षीण हो जाती हैं
और लाख कोशिष करने पर भी
अपने आप को उस
कमल के कोमल पंखूडीयों से
आजाद नही कर पाता हैं
ठिक उसी प्रकार मै भी
अब मजबूर हूँ
लाख चाहते हुयें भी
मन की बात नही सुन सकती हूँ
और न ही इस बंधन से
अपने आप को मुक्त करा पाऊँगी |
निवेदिता चतुर्वेदी ‘निव्या’