ग़ज़ल
किसी अंजान से रिश्ता कभी गहरा नहीं होता ।
मुहब्बत गर न होती आदमी जिन्दा नहीं होता।
कोई ऊँचा नहीं होता कोई नीचा नहीं होता ।
अगर इंसान ये समझे कोई भूखा नहीं होता ।
नहीं मशहूर होते लैला मजनूं हीर रांझा भी
मुहब्बत पर जमाने का अगर पहरा नहीं होता ।
कमा ली खूब दौलत आदमी ने बेच दी इज्जत
कहाँ गैरत गई क्यूँ आदमी शर्मिंदा नहीं होता ।
खुदाया उस डगर पे क्यूँ गये अपने सभी मेरे
जहाँ से लौट आने का कोई रस्ता नहीं होता ।
मुहब्बत गर नहीं करता किसी पत्थर से मैं यारो ।
फकत सीसे के जैसे टूटकर बिखरा नहीं होता ।
सहारे टूट जाते हैं हजारों वक़्त आने पर
मुसीबत की घड़ी में पास गर पैसा नहीं होता ।
न जाने कौन ऐसी बात है मेरे खुदा मुझमे
जिसे हम चाहते है वो कभी मेरा नहीं होता ।
कभी उम्मीद का अपने दिया बुझने नहीं दूंगा
भले ही स्याह रातों का कभी सहरा नहीं होता ।
जमाने का चलन देखा तो ये मुझको लगा साहिब
अमीरों का गरीबों से दिली रिश्ता नहीं होता ।
— धर्म पाण्डेय