शब्द
कभी कभी कलम के
उदर में जब्त
तरल होकर
जज्बाती हो जाते है
बहकने लगते है
लेखनी के नोक से
फूट पड़ने के लिए
कुछ नीले शब्द
कभी कभी
सीने में
सर्कस के जोकर बनकर
दफन हो जाते है
कुलांचे भरने लगते है
कुछ अनकहे
मटमैले शब्द
कुछ शब्द
रंगहीन होते है
दिमाग के हांडी मे पकते
कच्ची कविता की तरह
उबलते रहते है
सोच की आंच में
ठोस कविताओं में
ढलने के लिए
कुछ शब्द
होते है सफेद
उजले आकाश की तरह
कभी भी बरस पड़ते है
किसानो के खेत में
उम्मीद की मिठास बनकर
कभी कभी
अमावस की रात सी
काले हो जाते है शब्द
निकलते ही
खड़ी करते है दिवारे
जलने लगती है झोपड़ियों
और धुआं धुआं
हो जाता है शहर
कुछ शब्द होते है
प्रतिज्ञा जैस ठोस
कभी नहीं मुड़ने वाले
पक्के लोहे के मानिंद
अकेले ही निकल पड़ते है
क्रांति का बिगुल लेकर
कभी कभी
शब्द तेज हो जाते है
दराती के धार की तरह
गहरे जख्म देते है
फिर रिसने लगते है
रिश्तों मे मवाद बनकर
शब्द कभी कभी
स्वादहीन हो जाते है
गरीबों के भूख के माफिक
हवा में उड़ जाते है
गैस बनकर
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली ”